हंसो हंसो जल्दी हंसो
हकीम लुकमान ने कब्र से निकलकर मुझसे कहा- बेटा, जल्दी हंसो, वरना मुहूर्त निकल जाएगा। सिर्फ हंसना ही कोरोना की काट है। आपके हंसने से वह चिढ़ता है। इसलिए बुक्का फाड़कर हंसो, पेट पकड़कर हंसो, उछल-कूदकर...
हकीम लुकमान ने कब्र से निकलकर मुझसे कहा- बेटा, जल्दी हंसो, वरना मुहूर्त निकल जाएगा। सिर्फ हंसना ही कोरोना की काट है। आपके हंसने से वह चिढ़ता है। इसलिए बुक्का फाड़कर हंसो, पेट पकड़कर हंसो, उछल-कूदकर हंसो। लेकिन हंसो, वरना रेल छूट जाएगी। वैसे भी, रोता हुआ जोकर किसे अच्छा लगता है? आप जानवर नहीं हैं, जो हंस नहीं सकते। त्रासदी को केवल हंसी से हराया जा सकता है।
यह सही है कि जैसी दुनिया हमने बनाई है, उसमें आदमी का हंसना दुश्वार होता जा रहा है। गरीबों के चेहरे से हंसी शायद गायब है और अमीरों को हंसने के लिए लाफिंग क्लब जाना पड़ रहा है। लेकिन जब तक मन न हंसे, खाली फेफड़ों को हंसाने से क्या मतलब? सिर्फ जिंदा आदमी ही हंस सकता है, मुर्दा हंसने लगे, तो भूत लगता है। ‘जो हंसी, वो फंसी’ वाला मुहावरा बहुत पुराना हो गया है। अब आप रोते-रोते भी फंस सकते हैं। कुछ लोग तो ऐसे हंसते हैं, जैसे विलाप कर रहे हों। कुत्ते का रोना अपशकुन माना जाता है, वैसे मैंने कुत्तों को कभी हंसते नहीं देखा। यह भी सच है कि क्रोध जल्दी आता है, हंसने के लिए इंतजार करना पड़ता है। कभी रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में कहा था- हंसो हंसो जल्दी हंसो। बाद में टाइम नहीं मिलेगा। वैसे भी, बेवक्त हंसने के लिए द्रौपदी को क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा।
हिंदी साहित्यकार प्रोफेसर नगेंद्र ने अपने शोध ग्रंथ में हिंदी में हास्य की कमी का संकेत किया था। हिंदी आज तक रो रही है। आप चाटुकार हों या मसखरे, एक ही बात है। हंसना तो एक लोक कला है। इसे किसी शास्त्रीय राग में नहीं बांधा जा सकता। वैसे भी, विद्वान बड़ी देर तक चुप रहे, तो मूर्ख लगता है। इसी तरह, मूर्ख बड़ी देर तक चुप रहे, तो विद्वान लगने लगता है। मूर्खता की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। हमारे गांव-देहातों में तो लोग पेट पकड़कर न हंसें, उनकी तोंद न हिले, तब तक बुक्काफाड़ हंसी नहीं मानी जाती। दरअसल हंसना जिम्मेदारी का काम है, मसखरों का भी यह पेशा नहीं, धर्म है।