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Hindi News ओपिनियन नश्तरजुबानी जनसेवकों की बढ़ती जमात

जुबानी जनसेवकों की बढ़ती जमात

आजादी के बाद से जो तरक्की पर हैं, वे जुबानी जनसेवक हैं। यह सेवा की नई टोल है। इनके पूर्वजों ने देश के लिए अपना सर्वस्व गंवाया। कभी जेल की यातनाएं सहीं, कभी लाठी-डंडे की मार। आजादी के एक-दो दशक तक यह...

जुबानी जनसेवकों की बढ़ती जमात
    गोपाल चतुर्वेदीSun, 27 Sep 2020 11:56 PM
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आजादी के बाद से जो तरक्की पर हैं, वे जुबानी जनसेवक हैं। यह सेवा की नई टोल है। इनके पूर्वजों ने देश के लिए अपना सर्वस्व गंवाया। कभी जेल की यातनाएं सहीं, कभी लाठी-डंडे की मार। आजादी के एक-दो दशक तक यह समर्पण की भावना जीवित रही। कहते हैं, तब के गृह मंत्री सरदार पटेल ने अपने पुत्र के दिल्ली आने पर रोक लगा दी थी। समय के साथ ऐसे व्यक्तियों की सिर्फ यादें शेष हैं। शब्दकोश में जनसेवा भले जनता की सेवा है, वास्तविकता में यह सिर्फ अपनी और अपनों की सेवा है। ऐसे अधिकतर विदेश शिक्षित अंतरराष्ट्रीय नागरिक बनकर लौटते हैं।
फिर निजी ट्यूटर रखकर भाषण की भाषा हिंदी सीखते हैं और उसके बाद दलित, उपेक्षित, वंचित, जनहित, निर्धन-कल्याण आदि शब्दों का रट्टा लगाते हैं। उसके बाद जहां जनता दिखी, वहां इन शब्दों की उल्टी कर देते हैं। फिर अपने फार्महाउस या महलनुमा आवास में ‘परफ्यूम’ से नहाते हैं कि सामान्य-जन के स्पर्श का कलुष शरीर पर न लगा रह जाए? इन्हें संतोष है। इन्होंने जुबानी जमा-खर्च से अपने हिस्से की जनसेवा निपटा दी। बाकी काम वर्कर्स का। अब कहीं आग लगे, बलवा-विवाद हो, ये फोन तक घुमाने को प्रस्तुत नहीं हैं। यह इनकी वास्तविक सेवा भावना है। ट्यूटर द्वारा रटाए शब्दों के प्रयोग का लक्ष्य बस कुरसी है। उस पर आसीन हुए बिना बेचारे आधी-अधूरी जनसेवा को विवश हैं। एक बार वहां जमना जरूरी है, वरना वादे, आश्वासन, जन-कल्याण कैसे संभव होगा? उनका और खानदान का ख्याल है कि जैसे ही वे उस कुरसी में धंसे नहीं कि हर जन-कष्ट का खुद-ब-खुद निवारण हो जाएगा। 
जुबानी जनसेवक का सोचना है कि उसके अलावा दल का हर नेता नाकारा है, मीटिंग में उसकी उपस्थिति को अभूतपूर्व जन सहयोग मिलता है। उसे देखते ही कुछ ताली बजाते है, कुछ सीटी। मनोरंजन की अपेक्षा में! हमारे परिचित मनोचिकित्सक का निष्कर्ष है कि कुछ का शरीर कोरोना से ग्रसित है, कुछ की बुद्धि। कहीं ये सत्ताधारी कोरोना-ग्रसित बुद्धि का आदर्श उदाहरण तो नहीं हैं? 
 

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