फटाफट क्रिकेट सा मरना-जीना
जानलेवा बीमारी के भय से साबुन से हाथ धोते-धोते लगता है कि हथेलियों में जो थोड़ी-बहुत भाग्य-रेखा बची है, वह भी अंतत: घिस जाएगी। पहले तो धूल-धसरित हाथों के बारे में अक्लमंद टाइप के लोग बताते थे कि...

जानलेवा बीमारी के भय से साबुन से हाथ धोते-धोते लगता है कि हथेलियों में जो थोड़ी-बहुत भाग्य-रेखा बची है, वह भी अंतत: घिस जाएगी। पहले तो धूल-धसरित हाथों के बारे में अक्लमंद टाइप के लोग बताते थे कि ऐसे कमेरे हाथ ही किसी देश का मुस्तकबिल लिखते हैं। बच्चे सोचते थे कि उनके पिता के हाथ मिट्टी-गारे में अंटे रहे और माओं के हाथ आटे में सने रहे, फिर भी वे ‘पराई चुपड़ी’ देख नदीदों की तरह राल टपकाते रहे।
अब कहा जा रहा है कि सब अलग-अलग साबुन से अपने हाथ धोएं। एक ही साबुन इस्तेमाल करेंगे, तो संक्रमण बढ़ेगा। हर कोई स्वार्थी हो, सिर्फ अपनी चिंता करे। तीज-त्योहार पर गले मिलना जरूरी हो, तो सांकेतिक आलिंगन कर लें। फिजिकल डिस्टेंसिंग की वैश्विक रुत में प्रेम के भौतिक प्रदर्शन के लिए ‘फ्लाइंग किस’ यानी हवाई चुंबन से बेहतर विकल्प और क्या होगा? वैसे मन की गहराइयों से निकली नि:शब्द आह नजदीकियों की अभिव्यक्ति का सबसे जायज तरीका है। यह वही रहस्यमय आह है, जिसके बारे में अकबर इलाहाबादी कह गए हैं- हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम/ वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता। आह डिप्लोमैटिक व्यंजना है। इसकी हैसियत सोशल मीडिया वाले वाह, बधाई या लाइक सरीखी है। बात बनते-बिगड़ते जब ऊन के गोले-सी उलझ जाए, पर मामला सुलझाना जरूरी लगे, तो सलीके से आह भर लेने को विद्वानों ने अहा का समानार्थी माना है।
प्रतिदिन शाम को कोरोना का स्कोर बताया जाता है। महानगरों की सुविधा संपन्न जनता मनपसंद कोल्ड ड्रिंक सिप करते हुए इसे बड़े मनोयोग से सुनती है। 2020 के इस कालखंड में आदमी का जीना-मरना फटाफट क्रिकेट के स्कोर जैसा हो लिया है। कुछ दिन हुए, एक सरोकारी जी ज्ञान बांट रहे थे कि एक-डेढ़ प्रतिशत आबादी के मरने के डर से सरकार ने लॉकडाउन किए है। डेढ़-दो करोड़ के जीने-मरने से भला क्या फर्क पड़ता है? इतनी रकम में तो महानगरों में सी-फेसिंग 2-बीएचके फ्लैट भी नहीं मिलता।
