उस दिन भी वह परेशान थे। परेशान रहना उनका स्थाई भाव है। एक से छुटकारा मिलते ही दूसरी परेशानी से उलझ जाने की उन्हें लत है। हंसना तो दूर, मुस्कराते हुए भी वह कभी नजर नहीं आए। आखिरी बार उनके दांत होठों की कैद से कब बाहर दिखे थे, खुद उन्हें भी याद नहीं। पिछली परेशानी का सबब उम्र की आड़ में घर बैठने का आदेश था।
परेशानी को पॉजिटिव मान उनका निष्कर्ष था कि इसके चलते दिमागी विकार सतह पर आ जाता है। दिमाग उलझनों का गोदाम नहीं बनता। अगर दसेक ग्राम भी कवि हृदय उनके पास होता, तो निश्चित अपनी परेशानियों का कुल्ला कविता में कर सकते थे। लुप्त रचनाधर्मिता के चलते न जाने कितने काव्यांकुर फूटने से रह गए।
‘सुख में भी नाहक परेशान हो जाते हैं आप! भाभी जी बता रही थीं कि बथुए की रोटी के बजाय बथुए का रायता मिलने से भी आपको यह सोच परेशान करने लगती है कि सर्दियों में दही नुकसान करता है। फिजूल में दावत देते हैं परेशानियों को। पूस-माघ के महीनों में जेठ-वैशाख वाली धूप मिलने से रही?’ बोले, बंदा ठहरा खुले दिमाग वाला। आप तो अपने दिमाग के कपाट बंद रखते हो पंडिज्जी! परेशानियों का आवागमन दिमाग को सक्रिय रखता है। देश के पहले प्रधानमंत्री की तस्वीर पर गौर किया है कभी? वह अपनी ठुड्डी पर बंद मुट्ठी रखे रहते थे। दरअसल, वह देश के वास्ते परेशान रहते थे। उस पोज में कोई दूसरा नहीं दिखा आज तक। पीएम को हाशिये पर भी डाल दें, तो यदि माननीयों ने ही जनता की परेशानियों से वास्ता रखा होता, तो इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है, गजल न फूटती। शायर की खलिहान से सुनने को न मिलती।
पाबंदियों से कम्प्रोमाइज कर कोरोना की ग्लोबल और किसानों की लोकल परेशानी के बाद आगामी ग्लोबल परेशानी से भयाक्रांत होकर दुखी स्वर में वह बोले- आज ‘हैप्पी न्यू ईयर’ की ‘वाट्सएपी’ बारिश सुनिश्चित है। दुनिया को इस ‘मैसेज वार’ से बचा सकेंगे। इस शाश्वत परेशानी से मुझे परेशान कर छटक लिए भगवन!
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