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गलतफहमी से फूटता ज्ञान का प्रकाश

मुझे यह भ्रम किशोरावस्था तक रहा कि मेरा कर्तव्य लोगों को ज्ञान देना है। उसके बाद यह भ्रम नहीं रहा। मुझे लगा कि न तो मेरे पास फुरसत है, न ही ऐसा कोई कर्तव्य-बोध कि मैं यदि ज्ञान न दूं, तो दुनिया का...

गलतफहमी से फूटता ज्ञान का प्रकाश
राजेंद्र धोड़पकरWed, 02 Dec 2020 11:21 PM
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मुझे यह भ्रम किशोरावस्था तक रहा कि मेरा कर्तव्य लोगों को ज्ञान देना है। उसके बाद यह भ्रम नहीं रहा। मुझे लगा कि न तो मेरे पास फुरसत है, न ही ऐसा कोई कर्तव्य-बोध कि मैं यदि ज्ञान न दूं, तो दुनिया का बड़ा नुकसान हो जाएगा। हालांकि, मेरे आसपास और दूरदराज ऐसे लोगों की भरमार है, जो मानते हैं कि उनके पास जो ज्ञान है, उसे पाना और उससे लाभान्वित होना दुनिया का कर्तव्य है।
एक दिक्कत यह है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, मध्यमवर्गीय आदमी अमूमन सफल होता जाता है। सफल होने के लिए आम तौर पर कुछ करना नहीं पड़ता। जैसे सरकारी नौकरी में टाइम स्केल प्रमोशन होता है, वैसे ही जीवन में सफलता का भी प्रमोशन होता है। अक्सर लोग प्रमोशन की तरह जूनियर सफल से असिस्टेंट सफल,  डिप्टी सफल, स्पेशल सफल, सीनियर सफल, चीफ सफल होते चले जाते हैं।
सफलता का एक और रास्ता परिवार होता है। परिवार में आदमी कुंवारा से विवाहित, फिर फूफा, मौसा होते-होते ससुर होने की राह पर चल पड़ता है। इस प्रक्रिया में वह नए-नए रिश्तेदार जुटाता जाता है, जो उम्र में छोटे होते हैं। धीरे-धीरे उसके पैर छूने वाले लोगों की तादाद बढ़ती जाती है और जिनके पैर वह छूता है, उनकी तादाद कम होती जाती है। ये सारी बातें जीवन में समय के साथ होती चली जाती हैं। वास्तव में, आदमी को सिर्फ इतना करना होता है कि वह जिंदा रहे, लेकिन वह यह सोचता है कि यह सब उसकी प्रतिभा और मेहनत का फल है। जब कोई नौजवान उसके पैर छूता है, तो वह यह नहीं सोचता कि यह नौजवान ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहा है, क्योंकि संयोगवश वह उसका फूफा है। वह मानता है कि जरूर उसमें कोई बड़प्पन है, इसलिए उसका सम्मान हो रहा है।
यही गलतफहमी आदमी को यह मानने पर मजबूर कर देती है कि उसे अपने ज्ञान और अनुभव की सुगंध को चारों ओर फैलाना है। जिस बात की जड़ ही गलतफहमी और अज्ञान में हो, उससे क्या किसी को ज्ञान मिलेगा?
 

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