ज्योतिर्मय निर्झर
मनुष्य को ज्ञान इसलिए चाहिए कि वह अपनी बुद्धि का उचित उपयोग कर किसी नदी की तरह आगे की ओर प्रवाहित हो। विवेक भी इसलिए चाहिए कि वह जीवन की धारा को संयमित और अनुशासित करे। भारत में सरस्वती की कल्पना...
मनुष्य को ज्ञान इसलिए चाहिए कि वह अपनी बुद्धि का उचित उपयोग कर किसी नदी की तरह आगे की ओर प्रवाहित हो। विवेक भी इसलिए चाहिए कि वह जीवन की धारा को संयमित और अनुशासित करे। भारत में सरस्वती की कल्पना सबसे पहले ऋग्वेद में पवित्र नदी के रूप में की गई है, जो धीरे-धीरे नदी देवता और वाग् देवता की रूप में परिणत हुई। यह सरस्वती अत्यंत वेगवती नदी मानी गई है। ऋग्वेद ने उसे देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया, जो हमें पवित्रता, ज्ञान और शक्ति प्रदान करती है। नदी देवता का वाग् देवता के रूप में बदलाव यह बताता है कि हमें बहना भी है और कहना भी। यही वाणी विद्या और कला के रूप में स्वीकार की गई है। सरस्वती का वाहन हंस है, जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। इसे ही न्यायशास्त्र में ’नीरक्षीर न्याय’ कहते हैं।
सरस्वती का आवाहन बसंत पंचमी के दिन होता है। कहते हैं, इसी दिन बसंत का आगमन होता है। सूखे पत्ते हरे होने लगते हैं। वन-वाटिकाएं नई कलियों से भर जाती हैं। सब ओर सुगंध की एक लहर दौड़ जाती है। बसंत एक जागरण है, भीतर से बाहर प्रस्फुटित होने का भाव, शीत और कुहासे को चीरकर निकलती हुई सूर्य-किरणों की ऊष्मा का अनुभव। मौसम बदलने के साथ ही हमारे मन में भी बदलाव आ जाता है, जो हमें बताता है कि जीवन हम इस तरह जिएं कि हमारा प्रवाह कभी शिथिल न हो और उसमें संयम बना रहे।
यह सरस्वती बहने के साथ-साथ वाणी का संयम भी सिखाती है। निराला के शब्दों में यही सरस्वती हमें नव गति, नव लय, ताल छंद नव प्रदान करती है और हम इस ज्योतिर्मय निर्झर में नहाकर नए हो जाते हैं।