अपनी ही पड़ताल
देर रात को घर लौटते हुए एक किस्म की उदासी घेर लेती है। किसी तरह से बस कुछ चल रहा है। कहीं ठहर जाने का एहसास होता है उन्हें। ‘आखिर हम कितना अटक रहे हैं या आगे बढ़ रहे हैं, इसका जायजा लेते रहना...
देर रात को घर लौटते हुए एक किस्म की उदासी घेर लेती है। किसी तरह से बस कुछ चल रहा है। कहीं ठहर जाने का एहसास होता है उन्हें।
‘आखिर हम कितना अटक रहे हैं या आगे बढ़ रहे हैं, इसका जायजा लेते रहना जरूरी है।’ यह मानना है डॉ. चिकी डेविस का। मशहूर वेलनेस एक्सपर्ट चिकी का खुशियों पर जबर्दस्त काम है। वह यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के ग्रेटर गुड साइंस सेंटर से जुड़ी हैं। अपने को निहारना तो आसान होता है, लेकिन अपने को देखना आसान नहीं होता। उस देखने में हमें अपने बाहर को ही नहीं देखना होता। अपने भीतर भी झांकना होता है। अपने पर निंदक की निगाह डालनी होती है। उस निगाह से देखना है, लेकिन उसे अपने पर हावी नहीं कर लेना है। अपने प्रशंसक को देखना है। लेकिन उसे भी बहुत सिर नहीं चढ़ा लेना है। अपने को पूरे होशोहवास में देखना है। समूचे संतुलन में देखना है। कुल मिलाकर उसका मकसद होता है, अपने को बेहतर बनाने की कोशिश। अपने कदम-दर-कदम पर काम। हम जब उस कोशिश में जुटते हैं, तो सबसे पहले अपनी कमियों को देखते हैं। उन्हें कम करने की कोशिश करते हैं। अपनी खूबियों पर नजर डालते हैं। उन खूबियों को और बढ़ाते हैं। अपनी सोच पर ध्यान देते हैं। उसे नया करने की ओर मोड़ते हैं। हम किस हालात में हैं। यह देखते रहना भी जरूरी होता है। हम कितना आगे जा सकते हैं? खुद को कितना तान सकते हैं? जोखिम लेना तो जरूरी होता है, पर कितना? इसका भी हिसाब लगाना होता है। अपने अटकने, भटकने और बढ़ने की पूरी पड़ताल होती रहे, तो जिंदगी कुछ और ही हो जाती है।