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अपने पर अंकुश

अच्छा खासा उखड़े हुए थे बॉस। ‘आखिर तुम कर ही क्या सकते हो? तुम्हारा अपने पर ही जोर नहीं चलता। और उसके बिना कामयाबी मिल ही नहीं सकती।’ लेकिन कुछ और सोचते हैं डॉ डेविड लुडेन। उनका मानना है,...

अपने पर अंकुश
राजीव कटाराSat, 07 Jul 2018 01:03 AM
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अच्छा खासा उखड़े हुए थे बॉस। ‘आखिर तुम कर ही क्या सकते हो? तुम्हारा अपने पर ही जोर नहीं चलता। और उसके बिना कामयाबी मिल ही नहीं सकती।’ लेकिन कुछ और सोचते हैं डॉ डेविड लुडेन। उनका मानना है, ‘अपने पर नियंत्रण तो जरूरी है, लेकिन उसी पर जोर देना अच्छा नहीं है। वही अकेला कामयाबी का रास्ता नहीं है।’ वह मशहूर साइकोलॉजिस्ट हैं। जॉर्जिया ग्वेनेट कॉलेज में साइकोलॉजी के प्रोफेसर हैं। उनकी बेहद सराही गई किताब है, द साइकोलॉजी ऑफ लैंग्वेज : ऐन इंटीग्रेटेड अप्रोच।  
 अपने पर नियंत्रण के लिए बहुत जोर दिया जाता है। बस अपने रास्ते पर चलते रहो। इधर-उधर मत देखो, भटको मत। उस पर इतना जोर दिया जाता है कि वही अपने-आप में मंजिल लगने लगता है। और असल मंजिल कहीं हाशिये पर चली जाती है।
 अपने को वश में रखना जरूरी है। ताकि हम भटक न जाएं। लेकिन वही सब कुछ नहीं है। कुछ अलग करने के लिए हमें अपने को खोलना पड़ता है। अलग ढंग से सोचना होता है। हमें कुछ नया करने के लिए कभी मन को भटकने भी देना होता है। वह देर तक न भटके यह जरूरी है। लेकिन अपनी सोच को एक उड़ान तो देनी होती है। वह उड़ेगा नहीं, तो नए आसमान कहां से पाएगा? वह भटकेगा नहीं, तो अलग रास्तों की तलाश कैसे करेगा? हमें अपनी जिंदगी में नई जमीन खोजनी होती है। यह बात जरूर याद रखनी चाहिए। उसके लिए अपने पर अंकुश रखने की भी जरूरत होती है। और अपने को खुला छोड़ देने की भी। एकतरफा सोच हमें कहीं अटका देती है। और यह हम नहीं चाहेंगे।
 

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