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खुल जा सिम-सिम

आप एक मानव बस्ती की कल्पना करें, जहां सभी साहसी हों, उत्साह से लबरेज हों, जहां स्वस्थ प्रतियोगिताएं चलती हों और जीत-हार का निर्णय कठिन हो जाता हो। सामान्यत: ऐसा नहीं होता। हमारा समाज कई पाटों में...

खुल जा सिम-सिम
महेंद्र मधुकरTue, 13 Nov 2018 01:39 AM
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आप एक मानव बस्ती की कल्पना करें, जहां सभी साहसी हों, उत्साह से लबरेज हों, जहां स्वस्थ प्रतियोगिताएं चलती हों और जीत-हार का निर्णय कठिन हो जाता हो। सामान्यत: ऐसा नहीं होता। हमारा समाज कई पाटों में बंटा होता है। जिंदगी हमें एक बाधा दौड़ की तरह दिखाई देती है। हमारे आंगन में कोई कल्पवृक्ष नहीं होता कि हम जो मांगें, तुरत-फुरत मिल जाए।
हमारी हर इच्छा हमसे खून-पसीने और श्रम की मांग करती है। अलीबाबा और चालीस चोर जैसी पुरानी कहानियों में बिना श्रम किए थोड़ी अक्ल लगाकर अकूत संपत्ति पाने का जिक्र मिलता है, पर अक्ल के साथ जब श्रम मिलता है, तभी सोने पर सुहागा होता है। समाज में नकारात्मक लोगों की संख्या भी कम नहीं होती, जो रोकने और तोड़ने की कला में दक्ष होते हैं। उनसे बात करते ही लग जाता है कि आपके भीतर कोई शीश दरक रहा है और आप हताशा की पोटली लादे वापस आते हैं। ऐसे लोगों की भी अच्छी संख्या है, जो सगुन और अंधविश्वास के चक्कर में अपना बनता काम बिगाड़ लेते हैं। वे चाहें, तो किसी यात्रा पर चलते समय ‘आप कहां जा रहे हैं’ पूछकर भीतर की सुप्त ग्रंथियों को इस तरह ऐंठते हैं कि आपका उत्साह भंग हो जाता है। सचमुच क्या हम दूसरे की इच्छा के अधीन काम करने वाले मानव-रोबोट हैं? हमारी चेतना के दरवाजे किसी और के ‘खुल जा सिम-सिम’ और ‘बंद हो जा सिम-सिम’ से कैसे संचालित हो सकते हैं? अपने शरीर और मन पर सिर्फ हमारा शासन होना चाहिए। हमें अपनी मर्जी से चलने का अधिकार बचाए रखना है। मुक्त बहने वाले झरने दरवाजों के मोहताज नहीं होते। 
    

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