फोटो गैलरी

मोह के धागे

हम कहते हैं कि मृत्यु सुखद है, फिर भी मन में उसका भय होता है। अवचेतन में यह बात जमी हुई है कि मृत्यु के समय मनुष्य को मर्मांतक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि मरण-समा वेयणा...

मोह के धागे
आचार्य रूपचंद्र   Tue, 10 Apr 2018 10:58 PM
ऐप पर पढ़ें

हम कहते हैं कि मृत्यु सुखद है, फिर भी मन में उसका भय होता है। अवचेतन में यह बात जमी हुई है कि मृत्यु के समय मनुष्य को मर्मांतक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि मरण-समा वेयणा नत्थि  यानी मृत्यु के समान कोई वेदना नहीं है। जब आदमी किसी भीषण कष्ट से गुजरा हो, तो उसके मुंह से यही निकलता है कि मौत के मुंह से निकल आया है। इस भय का दूसरा बड़ा कारण है, जीवन के प्रति अनंत मोह। सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय होता है। सभी जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। सब जीवन से चिपके हुए दिखाई देते हैं। वृद्ध से वृद्ध और रोगी से रोगी व्यक्ति के मन में भी मृत्यु के समय जीवन के लिए एक तीव्र छटपटाहट देखी जाती है। 
महावीर इसी को अनंत मोहे,  अनंत मोह की संज्ञा देते हैं। मनोविज्ञान में जीने की इस तीव्र लालसा को जिजीविषा कहते हैं। इसे मनुष्य की बुनियादी अंत:-प्रेरणाओं में गिना जाता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी एरिक वन्र्स मनुष्य के तीन मूलभूत विश्वासों में प्रथम इसी अंत:प्रेरणा को मानते हैं, ‘अपने अस्तित्व की अमरता में विश्वास।’ मरने की अनिवार्य घड़ी को सामने देखकर भी मरने से डरना उसी जिजीविषा की झलक है। इसके पीछे एक कारण अज्ञात के प्रति आशंका भी है कि कहीं नरक में न जाना पड़ जाए। शरीर के मोह की तरह परिवार का भी मोह पैदा हो जाता है कि परिवार का क्या होगा? वे गीता  में कृष्ण के कथन को भूल जाते हैं कि ‘जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जैसे वस्त्र जीर्ण हो जाने पर मनुष्य नए कपड़े धारण करता है, वैसे ही शरीर के जीर्ण होने पर आत्मा नए शरीर को धारण करती है।’ 
 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें