मान भी लो
वह परेशान हैं। बॉस ने कल ही तो कहा था कि वह अपने में बदलाव नहीं लाते। वह मान ही नहीं पाते कि कुछ गड़बड़ी कर रहे हैं। ‘जब तक हम सच को मान नहीं लेते, तब तक बदलाव की बात बेकार है।’...
वह परेशान हैं। बॉस ने कल ही तो कहा था कि वह अपने में बदलाव नहीं लाते। वह मान ही नहीं पाते कि कुछ गड़बड़ी कर रहे हैं।
‘जब तक हम सच को मान नहीं लेते, तब तक बदलाव की बात बेकार है।’ यह मानना है कार्ल जुंग का। वह महानतम साइकोलॉजिस्ट में एक रहे हैं। फ्रायड से आगे की थ्योरी पर काम है उनका। उनकी बेहतरीन किताब है, साइकोलॉजी ऑफ द अनकॉन्शस।
अक्सर हमें महसूस होता है कि जो भी कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। जब सब ठीक चल रहा होता है, तब कोई दिक्कत होती भी नहीं। चीजें ठीक नहीं होतीं, तो दिक्कत आती है। अपने कामों में आ रही रुकावटें ही हमें सबसे पहले बताती हैं कि अब कुछ करने की जरूरत है। हमें बदलाव की जरूरत है। और यह सच है कि बदलाव करने को हमारा मन मानता नहीं। बदलने के लिए हमें अक्सर अपने से जूझना होता है। हम भीतर से जब यह मानते हैं कि कहीं कोई गड़बड़ है। कहीं कोई कमी है। तब हम बदलाव की बात करते हैं। यह मान लेना ही हमें बदलाव की ओर ले जाता है। हम चीजों पर फिर से सोच-विचार करते हैं। अपनी कमियों पर नजर डालते हैं। खूबियों को दरकिनार नहीं करते। अपनी खूबियां तो खैर हैं ही। उन्हें और बेहतर करना होता है। अपनी कमियों पर लगातार काम करना पड़ता है। उसके लिए हम खुद तो काम करते ही हैं। कभी-कभी हमें अपनी कमियों की वजह नजर नहीं आती। उसके लिए हम किसी की मदद भी ले सकते हैं। तब एक दिन हम सचमुच उस बदलाव को ले आते हैं, जो हमारे लिए जरूरी होता है।