आध्यात्मिक गुरु क्यों चाहिए
सबसे पहली बात तो यह है कि हम गुरु चाहते ही क्यों हैं? हम कहते हैं कि हमें एक गुरु की आवश्यकता है, क्योंकि हम भ्रांति में हैं और गुरु मददगार होता है। वह हमें बताएगा कि सत्य क्या है? वह जीवन के बारे...
सबसे पहली बात तो यह है कि हम गुरु चाहते ही क्यों हैं? हम कहते हैं कि हमें एक गुरु की आवश्यकता है, क्योंकि हम भ्रांति में हैं और गुरु मददगार होता है। वह हमें बताएगा कि सत्य क्या है? वह जीवन के बारे में हमसे कहीं अधिक जानता है। एक पिता, एक अध्यापक की तरह वह जीवन में हमारा मार्गदर्शन करेगा। उसका अनुभव व्यापक है और हमारा बहुत कम है, वह अपने अनुभवों द्वारा हमारी सहायता करेगा आदि-आदि। अत: मूल बात यह है कि आप किसी गुरु के निकट जाते ही इसलिए हैं, क्योंकि आप भ्रांत होते हैं। अगर आप अपने आप में स्पष्ट होते, तो आप किसी गुरु के पास न जाते। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि आप अपने रोम-रोम में खुश होते, यदि आपने जीवन को पूर्णतया समझ लिया होता, तो आप किसी गुरु के पास न जाते।
आप एक ऐसे गुरु को स्वीकार करते हैं, जो आपकी मांग को पूरा करे, गुरु से मिलने वाली परितुष्टि के आधार पर ही आप गुरु को चुनते हैं और आपका यह चुनाव आपकी तुष्टि पर आधारित होता है। आप किसी ऐसे गुरु को नहीं स्वीकार करते, जो कहता है, ‘आत्मनिर्भर बनें’; अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार ही आप उसे चुनते हैं। चूंकि आप गुरु का चयन उस परितुष्टि के आधार पर करते हैं, जो वह आपको प्रदान करता है, तो आप सत्य की खोज नहीं कर रहे, बल्कि अपनी दुविधा से बाहर निकलने का उपाय ढूंढ़ रहे हैं, और दुविधा से बाहर निकलने के उस उपाय को ही गलती से सत्य कह दिया जाता है।
आप किसी दूसरे के जरिये सत्य को नहीं पा सकते। ऐसा आप आखिर कैसे कर सकते हैं? सत्य कोई जड़ चीज नहीं है, उसका कोई निश्चित स्थान नहीं है, वह कोई साध्य, कोई लक्ष्य नहीं है, बल्कि वह तो सजीव, गतिशील, सतर्क, जीवंत है। वह भला कोई साध्य कैसे हो सकता है? सत्य यदि कोई निश्चित बिंदु है, तो वह सत्य नहीं है, तब वह मात्र एक विचार या मत है। सत्य अज्ञात है; और सत्य को खोजने वाला मन उसे कभी न पा सकेगा, क्योंकि मन ज्ञात से बना है। यह अतीत का, समय का परिणाम है। उसकी गति केवल ज्ञात से ज्ञात की ओर है।
सत्य का आगमन केवल उसी मन में होता है, जो ज्ञात से रिक्त है। मानव मन ज्ञात का भंडार है, वह ज्ञात का अवशेष है; उस अवस्था में आने या होने के लिए, जिसमें अज्ञात अस्तित्व में आता है, मन को अपने प्रति, अपने चेतन-अचेतन अनुभवों, प्रत्युत्तरों, अपनी प्रतिक्रियाओं व संरचना के प्रति जागरूक होना होगा। स्वयं को पूरी तरह से जान लेने पर भ्रांति का अंत हो जाता है, मन ज्ञात से पूर्णतया रिक्त हो जाता है। केवल तभी, अनामंत्रित ही, सत्य आप तक आ सकता है।
जे कृष्णमूर्ति