प्रतिमा की प्रासंगिकता
एक बड़े शहर में किसी महापुरुष की प्रतिमा के अनावरण का कार्यक्रम था। संगमरमर की बनी मूर्ति को अमल-धवल वस्त्रों से आच्छादित करके फूलों की झालरें लगाई गईं। तय समय पर एक अन्य महापुरुष के हाथों अनावरण होना...
एक बड़े शहर में किसी महापुरुष की प्रतिमा के अनावरण का कार्यक्रम था। संगमरमर की बनी मूर्ति को अमल-धवल वस्त्रों से आच्छादित करके फूलों की झालरें लगाई गईं। तय समय पर एक अन्य महापुरुष के हाथों अनावरण होना था। आवरण के हटते ही चमकती हुई मूर्ति ने सबका ध्यान आकृष्ट कर लिया। किसी प्रतिमा के स्वरूप में नहीं, उसके गुण और कर्म में आकर्षण होता है। मूर्ति तो निर्जीव होती है, पर उसके गुण जीवंत होते हैं।
हमारे यहां साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण रूपों में उपासना की परंपरा रही है। कई विचारधाराएं मूर्ति पूजा का विरोध करती हैं। मानव-मन शिशु की तरह होता है। उसे जिस बात के लिए मना करो, वही करने पर उतारू होता है। भगवान बुद्ध ने मूर्ति पूजा को स्वीकार नहीं किया, लेकिन सबसे अधिक मूर्तियां उन्हीं की बनीं। साधु-संतों के यहां आदमी को मूर्ति ही कहा जाता है। कोई नि:स्पंद मूर्ति हमें ध्यान और समाधि में ले जा सकती है। मूर्ति के अनावरण का मतलब है, आंतरिक सत्य का साक्षात्कार। उपनिषद ने इस बात को समझाते हुए कहा है कि सत्य का मुख सोने के ढक्कन से ढका हुआ है। उस ढक्कन को उठाने की आवश्यकता है। गणेशोत्सव हो या दुर्गापूजा, जन्माष्टमी या विश्वकर्मा पूजा, इन सबमें मिट्टी की प्रतिमाएं बनती हैं, उनकी पूजा होती है, सुंदर शृंगार भी होता है, और अंत में उन प्रतिमाओं को हम किसी जलाशय में विसर्जित कर आते हैं। पंचतत्वों का पंचतत्वों से मिलन हो जाता है। मिट्टी-जल आदि पदार्थों का विलय हो जाता है। प्रतिमाओं का यह विसर्जन हमारा मोह भंग करता है। हमें साकार से निराकार की ओर ले जाता है और हम जीवन के सत्य से परिचित होते हैं।