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खुद से ही झूठ

गुस्से में हैं बॉस। यह मीटिंग के शुरू में ही पता चल गया था। जाते-जाते कह गए। ‘अपने से झूठ बोलकर कहां जाओगे?’ ‘हम अगर अपने प्रति ईमानदार नहीं हैं, तो दूसरों के प्रति कैसे हो सकते...

खुद से ही झूठ
 राजीव कटाराFri, 24 Jul 2020 11:16 PM
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गुस्से में हैं बॉस। यह मीटिंग के शुरू में ही पता चल गया था। जाते-जाते कह गए। ‘अपने से झूठ बोलकर कहां जाओगे?’
‘हम अगर अपने प्रति ईमानदार नहीं हैं, तो दूसरों के प्रति कैसे हो सकते हैं?’ यह सवाल पूछते हैं डॉ. नील बर्टन। वह मशहूर साइकियाट्रिस्ट तो हैं ही, कमाल के लेखक और विचारक भी हैं। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाते हैं। उनकी चर्चित किताब है हैवन ऐंड हेल : द साइकोलॉजी ऑफ द इमोशन्स।
कभी-कभी हम अपने से झूठ बोलते हैं। या अक्सर हम अपने से झूठ बोलते हैं। अब झूठ तो झूठ होता है। चाहे हम अपने से बोलें या दूसरे से। दोनों ही हाल में हम अपने को ही ठगते हैं। एक झूठ की बुनियाद आखिर कब तक टिकेगी! हम अपनी एक दुनिया में रहते हैं। उसे बसाते हुए हम एक झूठ को ही सच समझ लेते हैं। या उसे दोहराते-दोहराते सच समझने लगते हैं। अक्सर हमें लगता है कि इस झूठ का दूसरे को क्या पता? लेकिन जिंदगी की वह बुनियाद इतनी कमजोर होती है कि अचानक किसी समय गिर पड़ती है। मजेदार बात है, तब भी हम अपने को नहीं कोसते। किसी दूसरे को कोसने लगते हैं। हम मानने को तैयार ही नहीं होते कि गड़बड़ हमने की थी। असल में, उस तरह की जिंदगी एक तरह का शॉर्टकट है। शॉर्टकट या पगडंडियां हमें अच्छी तो लगती हैं। लेकिन उन्हें ही जिंदगी का सच नहीं मान लेना चाहिए। एक दिन झूठ हम पर ही भारी पड़ता है। जिंदगी में ईमानदारी का एक मतलब होता है। हम अगर अपने लिए ईमानदार नहीं हैं, तो दूसरे के लिए हो ही नहीं सकते। अपना झूठ दूसरे के लिए सच नहीं हो सकता। 

 

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