विज्ञापन के मौजूदा दौर में भलाई के कर्मों में प्रचार की प्रवृत्ति घुस आई है। यही कारण है कि आज समाज सेवा के नाम पर लोग अपना प्रचार ज्यादा करते हैं। बडे़-बडे़ बजट की समाज सेवा में कुछ बजट आत्मप्रचार के लिए सुरक्षित होता है। अधिकतर लोगों में परोपकार के बाद आत्म-प्रचार का जुनून सवार होता है। यह जुनून हमें आत्म-मुग्धता की ओर ले जाता है। इस तरह हमारी यह आत्म-मुग्धता लगातार बढ़ती जाती है। हम परोपकार कर आत्म-प्रचार के जरिए आत्म-मुग्ध होते रहते हैं और यह भ्रम पाल लेते हैं कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। इस तरह की समाज सेवा अंतत: हमारा अहित ही करती है। ऐसी समाज सेवा का दुखद पहलू यह है कि यह हमारे अंदर एक अजीब किस्म का अहंकार भी पैदा करती है। सवाल यह है कि क्या अहंकार से ग्रसित इंसान सच्ची समाज सेवा कर सकता है?
जब हम परोपकार के प्रचार पर अपना ध्यान केंद्रित करने लगते हैं, तो समाज सेवा का भाव पीछे हो जाता है और प्रचार का भाव मुख्य हो जाता है। इस उपक्रम से हमें खुशी तो मिलती है, पर यह सच्ची खुशी नहीं होती, क्योंकि इसमें प्रचार की खुशी भी शामिल होती है। धीरे-धीरे हम केवल प्रचार की खुशी हासिल करने का प्रयास करने लगते हैं। इस तरह, परोपकार की भावना और उसकी खुशी पीछे छूट जाती है। दरअसल, परोपकार में केवल त्याग की भावना होनी चाहिए। परोपकार के बहाने दूसरे से अपना स्वार्थ साधने की कोशिश अंतत: हमें दुख ही प्रदान करती है। इसलिए परोपकार के बदले में दूसरे से कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा हमें कभी नहीं करनी चाहिए। नि:स्वार्थ सेवा का दूसरा नाम ही परोपकार है।
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