दुख जब चमकता है
वह प्राय: सोचते कि अब कुछ नहीं चाहिए; जो चाहिए, सब तो है अपने पास। सहोदर, परिवार, पड़ोस, हितैषी और अपनेपन की चाशनी में डूबा उनका शहर। फिर निर्धारित विभिन्न भूमिकाओं को भी अच्छी तरह निभा लिया था...
वह प्राय: सोचते कि अब कुछ नहीं चाहिए; जो चाहिए, सब तो है अपने पास। सहोदर, परिवार, पड़ोस, हितैषी और अपनेपन की चाशनी में डूबा उनका शहर। फिर निर्धारित विभिन्न भूमिकाओं को भी अच्छी तरह निभा लिया था उन्होंने। यकायक महामारी ने उन्हें भी हिला दिया। धरती जैसा स्थिर मन हिल गया। दिमाग कुंद, सड़कें बंद। अपनों से मिलने की बेचैनी, मगर चलें किधर, बढ़ें किधर? जीवन की धूप-छांव में हताशा के मोड़ प्राय: उभरते हैं- अनाहूत, अनचाहे, अनजाने। जो विश्वास कभी हमारे जीवन की पूंजी हुआ करता था, अनायास जर्जर हो जाता है। कभी आर्थिक मोर्चे पर असुरक्षित हुए, तो निराशा ने अपनी गिरफ्त में ले लिया, तो कभी प्रेम के मरुथल में झुलस जाने से निराशा का अंधेरा ग्रस लेता है। रोटी से चलकर सपनों तक ठहरने वाले सफर में निराशा के कई ऐसे मोड़ आते हैं, जहां आदमी निराश, हताश और कुंठाग्रस्त हो सकता है। अपनी प्रतिभा का आत्महंता नायक बन सकता है। ऐसा कभी-कभी ही होता है, ज्यादातर ऐसा होता है कि अपने दुखों, हताशा, निराशा, कुंठा और अपनी रोज-रोज की टूटन को पछाड़ वह शिखर पर खड़ा मिलता है। आत्म-विशवास से भरा व्यक्ति अपने सपनों तक पहुंचता है, अपने पीछे परंपरा की एक बारीक लकीर छोड़ता हुआ। हताशा से तपकर निकलने और आंसुओं से नहाकर उबरने के बाद दुख चमकने लगता है। मजबूत होने लगता है विश्वास और उम्मीद की चौखट पर खड़ा दिखता है वह। वक्त से हारा या जीता नहीं जाता, उससे केवल सीखा जाता है। यह वक्त भी गुजर जाएगा।