स्वतंत्रता का मंदिर
न्यूयॉर्क में प्रवेश करते ही आपका स्वागत करती है एक महाकाय स्वतंत्रता की देवी ‘द स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी।’ चबूतरे सहित लगभग 305 फीट ऊंची, एक हाथ में मशाल और दूसरे में किताब लिए यह तांबे की प्रतिमा लगभग...
न्यूयॉर्क में प्रवेश करते ही आपका स्वागत करती है एक महाकाय स्वतंत्रता की देवी ‘द स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी।’ चबूतरे सहित लगभग 305 फीट ऊंची, एक हाथ में मशाल और दूसरे में किताब लिए यह तांबे की प्रतिमा लगभग डेढ़ सौ सालों से समुंदर के बीच खड़ी है। फ्रांसीसी शिल्पकार फ्रेडरिक बार्थोल्दी ने इसे बनाया था। यह न केवल अमेरिका और फ्रांस की मुक्ति की आकांक्षा का प्रतीक है, बल्कि मनुष्य के जन्मजात अधिकार की घोषणा करती है और वह अधिकार है स्वतंत्रता का। विचारणीय बात यह है कि ग्रीक और रोमन ‘माइथोलॉजी’ में स्वतंत्रता का भगवान एक स्त्री है। इसीलिए अमेरिका ने भी स्वतंत्रता का उद्घोष करने की खातिर एक दैवी स्त्री को चुना, जबकि विरोधाभास यह है कि मानवीय स्त्री को न यूरोप और न अमेरिका में कोई स्वतंत्रता है। आज तक अमेरिका में एक भी स्त्री राष्ट्रपति नहीं बन पाई।
भारत में स्वतंत्रता की न कोई देवी है और न देव। चारों तरफ इतने सारे मंदिर हैं, लेकिन स्वतंत्रता का कोई मंदिर नहीं, क्योंकि देवता हो, तो ही मंदिर बनता है। वजह शायद यह होगी कि इस देश में स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ गुलामी से विद्रोह करना नहीं है, यहां स्वतंत्रता को हमेशा आत्मिक मुक्ति के रूप में देखा गया है। वस्तुत: पूरी आत्मिक खोज ही स्वतंत्रता को पाने के लिए है। मनीषी कहते हैं कि मनुष्य अपने गहरे में स्वतंत्र ही है। वह केवल मानता है कि बंधा हुआ है। जैसे ही वह अपने अंतरतम के निकट पहुंचता है, उसे अपनी ज्योति का अनुभव होता है। वह दिव्य हो जाता है। यह एक नितांत व्यक्तिगत विकास और अनुभूति है।
इसीलिए विद्रोह भारतीय मानसिकता का हिस्सा ही नहीं है। यहां के लोग हमेशा एक तरह के स्वीकार भाव में जीते रहे। इसीलिए यह चमत्कार हुआ कि सदियों तक भारत पर लगातार राजनीतिक आक्रमण होते रहे, लेकिन वे आक्रांता भारतीय अस्मिता को जीत न सके।
ओशो कहते हैं कि भारतीय मानस स्त्रैणतत्व से बना है। स्त्रैण का अर्थ है ग्रहण, शील, सात्विक, शांतिप्रिय, सहज समर्पण करने वाला, रचनात्मक, स्वीकार भाव से युक्त। स्वतंत्रता के भी यही सारे गुण हैं। जो स्वतंत्र है, वह आक्रामक नहीं होता, वह किसी को जीतने की लालसा नहीं रखता। वह इतना तृप्त हो जाता है कि उसे दिखाने की आकांक्षा भी नहीं रहती कि मैं स्वतंत्र हूं। फूल कब घोषणा करता है कि मैं खिल गया! जिसने स्व का तंत्र, स्व का छंद पा लिया, उसे दूसरे को काबू में करने का ख्याल भी नहीं उठता। स्त्री-ऊर्जा प्रकृति के साथ घुल-मिलकर जीती है, क्योंकि वह स्वयं प्रकृति ही है। समूची प्रकृति ही स्वतंत्रता का मंदिर है, अलग से बनाने की जरूरत कहां?
अमृत साधना