भारतीय मानस की खूबियां
भारत के लोगों की, यहां तक कि अबोध जनता की भी, यह विशेषता है कि वे सदियों के प्रशिक्षण के कारण आंतरिक वास्तविकताओं के अधिक निकट हैं और अधिक सरलता के साथ ईश्वर व पारलौकिक जीवन के जीवंत दर्शन से...
भारत के लोगों की, यहां तक कि अबोध जनता की भी, यह विशेषता है कि वे सदियों के प्रशिक्षण के कारण आंतरिक वास्तविकताओं के अधिक निकट हैं और अधिक सरलता के साथ ईश्वर व पारलौकिक जीवन के जीवंत दर्शन से जुड़ जाते हैं, बनिस्बत किसी अन्य जगह के आम लोगों या सुसंस्कृत ऊंचे स्तर के लोगों के, अन्यथा कहां बुद्ध के ऊंचे, अतिसंयमी और कठिन उपदेश लोक मानस को इतनी शीघ्रता से ग्रसित कर पाते? कहां तुकाराम, रामप्रसाद, कबीर और सिख गुरुओं के न केवल गीत व भावप्रवण भक्ति से भरे तमिल संतों के आलाप, बल्कि उनके उदात्त आध्यात्मिक विचार इतनी शीघ्र प्रतिध्वनि पाकर एक लोकप्रिय धार्मिक साहित्य का निर्माण कर पाते? समूचे राष्ट्र की यह सशक्त पारगम्यता या आध्यात्मिक प्रकृति से समीपता परम आध्यात्मिक संस्कृति के लक्षण और परिणाम हैं।
पश्चिम की मनोवृत्ति बहुत समय से पूरी मानवता के लिए एक ही धर्म के आक्रामक और बिल्कुल तर्क-विरुद्ध विचार को पोषित करती आई है, एक ऐसा धर्म, जो अपनी संकीर्णता, धर्मसिद्धांतों की एक श्रेणी, एक उपासना पद्धति, अनुष्ठानों की एक प्रणाली, विधि-निषेधों के एक विन्यास, एक धार्मिक अध्यादेश के बल पर सार्वभौम हो। वह संकीर्ण असंगति एक सच्चे धर्म के रूप में इठलाती फिरती है, जिसे यहां लोगों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने के डर से और दूसरे लोकों में ईश्वर द्वारा आध्यात्मिक अस्वीकार या भयंकर दंड दिए जाने के डर से सभी को स्वीकार करना चाहिए। मानव तर्कहीनता का यह विकृत सृजन भारत के स्वतंत्र और लचीले मानस को कभी दृढ़तापूर्वक पकड़ नहीं पाया है।
आदमियों में हर जगह एक जैसी मानवीय कमजोरियां होती हैं और विशेष रूप से धार्मिक रीति-रिवाजों के मामले में भारत में भी असहिष्णुता और संकीर्णता रही है और है।... परंतु यहां इन चीजों का उतना अनुपात नहीं हो पाया, जितना यूरोप में हो गया था। यहां अधिकतर असहिष्णुता खंडन-मंडन के छोटे-मोटे स्वरूपों या जाति-बहिष्कार तक सीमित रही है। बहुत ही कम उन्होंने रेखा पार करके बर्बर उत्पीड़न के उन स्वरूपों को अपनाया है, जिन्होंने यूरोप के धार्मिक इतिहास के पटल पर एक लंबा और वीभत्स दाग अंकित कर दिया है।
भारत में सदैव ही एक उच्चतर और अधिक पवित्र आध्यात्मिक बुद्धि की रक्षाकारी सूझ-बूझ क्रियाशील रही है, जो अपना प्रभाव आम जनता की मनोवृत्ति पर डालती रही है। भारतीय धर्म ने हमेशा यह महसूस किया कि चूंकि मस्तिष्क, प्रवृत्तियां और लोगों के बौद्धिक संबंध अपनी विविधता में निस्सीम हैं, इसलिए व्यक्ति को परमात्मा के प्रति अपने रवैये में विचार और पूजा की पूरी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
श्री अरविंद