फोटो गैलरी

दुुख से बचना

जब से मानव ने होश संभाला, वह दुखों से पीछा छुड़ाने में लग गया, लेकिन क्या वह ऐसा कर पाया? हम जानते हैं कि यह नहीं हो सकता, फिर भी कोशिश तो करते ही हैं। दुख का प्रभाव कम से कम हो, इसके लिए उसे समझना...

 दुुख से बचना
प्रवीण कुमार,नई दिल्लीेThu, 25 May 2017 11:25 PM
ऐप पर पढ़ें

जब से मानव ने होश संभाला, वह दुखों से पीछा छुड़ाने में लग गया, लेकिन क्या वह ऐसा कर पाया? हम जानते हैं कि यह नहीं हो सकता, फिर भी कोशिश तो करते ही हैं। दुख का प्रभाव कम से कम हो, इसके लिए उसे समझना जरूरी है, उससे बचना नहीं, क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं। और यह भी संभव नहीं है कि जब दुख-सुख की बात हो, तब गौतम बुद्ध याद न आएं। उन्होंने सदियों पहले कहा- ‘संसार का विस्तार संसार में नहीं, मन में है। जीवन में अगर दुख है, तो मन के कारण और अगर सुख का अनुभव होता है, तो वह भी मन के कारण। मन ही जीवन को भवसागर बनाता है और मन ही अगस्त्य बनकर उस भव को सुखा देता है।’ बुद्ध की बातों का सार यही है कि सुख-दुख कोई बाहरी तत्व नहीं, मन की कारीगरी है। मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं और दार्शनिक भी।


आज से करीब 350 साल पहले दार्शनिक रेने देकार्ते ने शरीर की तुलना मशीन से की और कहा कि दुख शरीर के भीतर के मेकेनिकल डिसबैलेंस से होता है। तब उनकी बात को ज्यादा मान्यता नहीं मिली, पर अब के मनोवैज्ञानिक उनकी बात आगे बढ़ाते हुए मानते हैं कि दुख का मतलब है शरीर में एक निश्चित मात्रा में न्यूरोलॉजिकल सेल्स का नष्ट होना।


दुख हमसे कभी दूर नहीं होता। यह हमारे इर्द-गिर्द ही रहता है, अपनी बारी के इंतजार में। जैसे ही कोई स्थिति हमारे प्रतिकूल आती है, यह हमें घेर लेता है। इससे बचने का बस एक उपाय है- भीतर के समभाव को जगाना। यही स्थितिप्रज्ञता है और यही निर्वाण। जैसे रोग प्रतिरोधक क्षमता होने पर रोगाणु हमला नहीं करते, वैसे ही समभाव में आने पर दुख नहीं आता।
                                             

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें