दिवालिया मुल्क की मदद का रुकना
नए साल की पहली सुबह इस तरह के संदेश की कल्पना पाकिस्तानी हुक्मरानों ने सपने में भी न की होगी। देर रात तक जागने के बाद अलस्सुबह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के लिए जो ट्वीट किया, उसे कूटनीतिक...
नए साल की पहली सुबह इस तरह के संदेश की कल्पना पाकिस्तानी हुक्मरानों ने सपने में भी न की होगी। देर रात तक जागने के बाद अलस्सुबह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के लिए जो ट्वीट किया, उसे कूटनीतिक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। लगभग गाली-गलौज की भाषा में पाकिस्तानी नेतृत्व को झूठा और धोखेबाज कहने वाले ट्वीट को अमेरिका के चुकते धैर्य का प्रतीक माना जा सकता है। दोनों मुल्कों के बीच नया राष्ट्र बनने के फौरन बाद 1948 में ही एक ऐसा रिश्ता बना, जिसे पारंपरिक शब्दावली से परिभाषित करना थोड़ा मुश्किल होगा। तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान सोवियत रूस के बुलावे की उपेक्षा कर सप्रयास हासिल किए गए निमंत्रण पर अमेरिका चले गए। उनकी यात्रा से दोनों देशों के बीच जो रिश्ता बना, उसे वाशिंगटन में पूर्व पाक राजदूत हुसैन हक्कानी फरेब और मक्कारी की तिलिस्मी गाथा मानते हैं। उनके अनुसार, इस संबंध की व्याख्या करते समय यह तय करना मुश्किल है कि पाकिस्तानियों को मूर्ख बनाने की कला में महारत हासिल थी या अमेरिकी जान-बूझकर बेवकूफ बनते रहे। अपने ट्वीट में गाली-गलौज करने के अलावा ट्रंप ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि बस बहुत हो गया, अब पाकिस्तान को अमेरिका से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।
पंद्रह साल की विकट लड़ाई के बावजूद अमेरिका को अफगानिस्तान से सम्मानजनक विदाई का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। बकौल पाक विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ, अमेरिका वहां पूरी तरह से हार गया है और उसकी सेना अपनी असफलता का ठीकरा पाकिस्तान के सिर मढ़ना चाहती है। दूसरी तरफ, नाटो रणनीतिकारों का मानना है कि उन्हें सफलता पाकिस्तान के दोगलेपन के कारण नहीं मिल पा रही है। एक तरफ तो वह साथ देने के नाम पर उनसे अरबों डॉलर हर साल ऐंठ रहा है और दूसरी तरफ लड़ाई में अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मन तालिबान व हक्कानी नेटवर्क को अपनी जमीन पर पनाह दिए हुए है। इस्लामाबाद का यह दावा कि अमेरिका के दुश्मन अफगानिस्तान की धरती पर ही सरकारी नियंत्रण से बाहरी इलाकों में छिपे हुए हैं, जमीनी यथार्थ से मेल नहीं खाता, पर अमेरिका के लाख प्रमाण देने के बाद भी पाकिस्तानी सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है। दोनों राष्ट्रों की सोच का यही फर्क उनके हालिया संबंधों में आई खटास का कारण है।
इस मतभेद को समझने के लिए इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा। पाकिस्तान अपनी भू-राजनीतिक स्थिति के कारण अमेरिका के लिए हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। शीत युद्ध के दौरान सोवियत रूस हमेशा उसकी चिंता के केंद्र में रहा। उसके लिए सोवियत सीमा से सटा अफगानिस्तान और उसे चारों तरफ से घेरे पाकिस्तान का खासा महत्व था। दोनों विश्व युद्धों के पूर्व ब्रिटिश साम्राज्य को रूस से ऐसा ही डर था और उसके लिए भी अफगानिस्तान एक बफर की तरह काम करता था। यह बफर बना रहे, इसके लिए उस भू-भाग पर दबदबे की जरूरत थी, जो पहले पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत कहलाता था और आज के पाकिस्तान का हिस्सा है। भू-राजनीतिक स्थिति ही दोनों देशों के बीच संबंधों के उतार-चढ़ाव की जिम्मेदार है। पाकिस्तान के अपने ठिकानों से ही अमेरिका रूस पर खुफिया निगाह रखता है, यहीं से उड़े टोही विमान यू-2 को सोवियत रूस ने मार गिराया था। उस एक घटना से शीत युद्ध में मजीद इजाफा हुआ था।
अफगानिस्तान में सोवियत अतिक्रमण के बाद अमेरिका ने पाकिस्तानी मदद से ही जेहादियों को संगठित और शस्त्र-सज्जित कर उसके खिलाफ अस्सी के दशक में निर्णायक लड़ाई लड़ी थी। सोवियत रूस अफगानिस्तान में न सिर्फ हारा, बल्कि इसी के बाद विघटित भी हो गया। अमेरिका तो मतलब साधकर इलाके से निकल गया, पर जनरल जियाउल हक के दौर का पाकिस्तान इसी लड़ाई के कारण धार्मिक कट्टरपंथ की जकड़ में ऐसा फंसा कि 70 हजार से अधिक नागरिकों की कुर्बानी के बाद भी अभी तक इस जकड़बंदी से मुक्त नहीं हो सका है। सोवियत सेना के जाने के बाद अफगानिस्तान में कभी स्थायित्व नहीं आया और पिछले तीन दशकों से जातीय पहचान और वार-लॉर्ड्स के हितों के लिए लड़ने वाले गिरोह देश को युद्ध में झोंके हुए हैं। 9/11 के बाद अमेरिका ने एक बार फौजी हस्तक्षेप कर तालिबान और अल-कायदा को काबुल से तो भगा दिया, पर काबुल में स्थिरता नहीं ला सका। पहले करजई और अब अशरफ गनी की चुनी हुई सरकार तालिबान व हक्कानी नेटवर्क की वजह से काम नहीं कर पा रही है और अब भी लगभग आधा अफगानिस्तान सरकारी नियंत्रण के बाहर है। सोवियत फौज को भगाने के बाद जिस तरह अमेरिका वहां से चुपचाप निकल गया था, इस बार वैसा नहीं हो पा रहा है। कई बार निकलने की तारीख घोषित करने के बाद अब तो उसने अनिश्चित काल तक वहां रहने का मन बना लिया है। इससे उसकी खीज और निराशा सहज ही समझी जा सकती है, खासकर तब, जब टं्रप अपनी चुनावी सभाओं में खुलेआम शेखी बघारते थे कि उनके आते ही अफगानिस्तान का संकट अमेरिकी मर्जी के अनुसार हल हो जाएगा।
चेतावनी तो पहले भी कई बार दी गई थी, पर पहली बार इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि पाक सेना अपने ही बनाए हक्कानियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कतई तैयार नहीं। ऊपर से तो पाकिस्तानी संसद, सरकार और सेना इस मुद्दे पर एक सफ में दिख रहे हैं और सारी संस्थाएं अमेरिका को सख्त लहजे में तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि उन्हें अमेरिकी मदद की कोई जरूरत नहीं है। एक तरफ सेना कह रही है कि वह किसी भी इकतरफा अमेरिकी कार्रवाई का जवाब देगी, वहीं पाकिस्तानी रक्षा मंत्री के अनुसार, दोनों देशों के बीच सारे सैनिक संबंध अब समाप्त हो गए हैं। सवाल है कि यह दृढ़ता कब तक चलेगी? पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ चुका है और अगले महीने ही उसे कटोरा लेकर वर्ल्ड बैंक व आईएमएफ की शरण में फिर जाना होगा। अमेरिका को नाराज कर वह इन संस्थाओं से कितनी मदद की उम्मीद कर सकता है? इसी वर्ष देश में आम चुनाव भी होने हैं और सैनिक-असैनिक अफसरों की ट्रंप विरोधी लफ्फाजियों ने जनता की भावनाएं उस पिच पर पहुंचा दी हैं, जहां से उन्हें सामान्य व तर्कसंगत बनाने के लिए जिस प्रौढ़ नेतृत्व की जरूरत होगी, उसका पाकिस्तान में सर्वथा अभाव है। देखना है कि राजनयिक हक्कानी के शब्दों में मक्कारी और फरेब का यह संबंध इस परीक्षा में कितना खरा उतरेगा?