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बाढ़ का कहर और सब्र का बांध

साहब खुश हैं। नई तैनाती पर आते ही अच्छी बाढ़ मिल गई। मेरे सामने बैठे वे बाढ़ की वजह से रात-दिन की अपनी व्यस्तता के किस्से सुना रहे हैं और मैं उनकी आवाज से छलकती खुशी पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं। पी...

बाढ़ का कहर और सब्र का बांध
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीThu, 31 Aug 2017 12:11 PM
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साहब खुश हैं। नई तैनाती पर आते ही अच्छी बाढ़ मिल गई। मेरे सामने बैठे वे बाढ़ की वजह से रात-दिन की अपनी व्यस्तता के किस्से सुना रहे हैं और मैं उनकी आवाज से छलकती खुशी पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं। पी साईंनाथ अपनी किताब एवरी वन लव्स अ गुड ड्राउट  में ऐसे सूखे का जिक्र करते हैं, जिसका नेता, दलाल और अफसर, सभी बेसब्री से इंतजार करते हैं। यहां सूखा तो नहीं, पर लगभग हर साल बाढ़ जरूर आती है और भुक्त भोगियों के अलावा सबको खुश कर देती है। 

दियारे में पसरे बीसियों गांव इस बार भी बाढ़ के पानी से घिरे हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों की तरह इस साल भी मैं गांव आया हुआ हूं और इस बार भी कॉमरेड हरमंदिर पांडे बाढ़ का प्रकोप दिखाने ले जाते हैं। साथ में एक्टिविस्ट हिना देसाई हैं, जो डूबे हुए बहुत से गांवों में घरेलू हिंसा और पितृ सत्ता के खिलाफ काम कर रही हैं। उनके काम का असर ही है कि इस पिछड़े इलाके में उनको कार ड्राइव करते देख लोग अचकचा कर खड़े नहीं हो जाते।

हमारी कार महुला गढ़वल बांध पर धीमी रफ्तार से चल रही है। बांध हर साल डूबे गांवों के उजड़े परिवारों को शरण देता है। उसकी सड़क की दोनों पटरियों पर गृहस्थियां बस जाती हैं। चूल्हे सुलग रहे हैं और भीगी लकड़ियों को फूंक-फूंककर आग जलाने के प्रयास में औरतों की आंखें धुंवठ रही हैं। अधनंगे बच्चे बांध पर ही खेल रहे हैं, लड़-झगड़ रहे हैं और उनमें से कुछ शौच के लिए बैठे हैं। हमारी कार उनके बीच से रास्ता बनाती हुई गुजर रही है और हम सभी उदास नजरों से बांध के दामन में बसे और एक-एक कर पीछे छूटते दाम महुला, सहबदिया, बरामदपुर, गांगेयपुर, मठिया, सहनूपुर, हाजीपुर, राजा देवारा खास, चक्की हाजीपुर, इस्माइलपुर, हैदराबाद को देख रहे हैं। 10-15 गांव पिछले दो-तीन दशकों में नदी में बह गए और उनका नामोनिशां तक मिट गया। बांध पर खड़े एक बुजुर्ग उंगली के इशारे से याद दिलाते हैं- महाजी, औघड़गंज, शिवपुर, रसूलपुर, शंकरपुर, इब्राहीमपुर, हैदराबाद, रोशन इब्राहीमपुर, रोशनगंज उर्दिहा, देवारा इस्माइलपुर... आज जिन गांवों में हम जिंदगी चलती-फिरती देख रहे हैं, क्या वे भी कुछ दशकों में स्मृति मात्र रह जाएंगे?

रास्ते में बाढ़ राहत चौकियों के नाम पर थोड़ा-बहुत सरकारी तंत्र दिखाई देता है। हमारे कार रोकते ही पीड़ित इस उम्मीद से कुछ न मिल पाने की शिकायतें करते हैं कि शायद हम राहत बांटने वाले हैं और सरकारी अमला हमें राजधानी से आए पत्रकार समझकर सफाई देने लगता है कि वे दिन-रात एक कर लोगों तक राहत पहुंचा रहे हैं, फिर भी इन्हें संतोष नहीं हो रहा है। दोनों पक्ष यह जानकर निराश हो जाते हैं कि हम तो सिर्फ तमाशबीन हैं और हमारी कोई आधिकारिक हैसियत नहीं है। इसी से यह भी स्पष्ट  हो जाता है कि जितना बड़ा दुख लोगों के ऊपर टूट पड़ा है, उसकी भरपाई सरकारी सहायता नहीं कर सकती। 

पानी बीच-बीच में उतरता है, लेकिन वापस लौटता पानी ज्यादा कटान करता है। 

हमारी नदी घाघरा है, जो अयोध्या में सरयू नाम से जानी जाती है। दक्षिणी तिब्बत के ऊंचे पर्वत शिखरों से निकलकर नेपाल में कर्णाली नाम की यह नदी उत्तर प्रदेश और बिहार के मैदानी इलाकों में बहती हुई बलिया और छपरा के बीच गंगा में मिल जाती है। 

ज्यादातर इलाकों और साल के अधिकतर महीनों में इसका व्यवहार शांत और अनुशासित रहता है। अपने इर्द-गिर्द पसरे बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टांडा, राजे सुल्तानपुर, दोहरी घाट, बलिया आदि इलाकों में प्रचुर मात्रा में शाक-सब्जी, गेहूं-धान और मछली देने वाली नदी अभी भी काफी हद तक प्रदूषण मुक्त है। शायद इसके दामन में बसे नगरों का बहुत अधिक औद्योगिक विकास न होना इसके लिए शुभ साबित हुआ है। रास्ते में कई जगह इससे नहरें निकली हैं और बड़े इलाके में किसान उन पर निर्भर हैं। बाढ़ का पानी जब लौटता है, तो गोरखपुर, मऊ   और आजमगढ़ की सीमाओं को छूने वाले जिस दियारे में हम घूम रहे हैं, वहां लगभग हर वर्ष विनाशलीला दिखाता है। इस इलाके में बाढ़ आमतौर से अगस्त-सितंबर में आती है, जब नेपाल की नदियां उफनती हैं।

एक जगह हमारे रुकने पर आस-पास प्राइमरी स्कूल के कुछ अध्यापक इकट्ठे हो जाते हैं। मुझे याद आता है कि इनमें से कुछ कॉमरेड हरमंदिर पांडे के साथ बाढ़ के स्थाई समाधान के लिए एक आंदोलन भी चलाते रहे हैं। पिछले वर्ष तो उन्होंने सिंचाई मंत्री को सैकड़ों लोगों के हस्ताक्षर वाला एक पत्रक भी दिया था। उनके पास बाढ़ का स्थाई समाधान है। वे बांध पर खड़े-खड़े अपने उंगलियों के इशारे से सुदूर एक-दूसरे बांध का खाका खींचते हैं, जो बाढ़ के इस पानी को दियारे में फैलने से रोकता हुआ आगे गंगा की तरफ ले जा सकता है। इससे डूब में आने वाली लाखों एकड़ जमीन खेती के लिए उपलब्ध हो सकती है।

लेकिन इसके लिए तो बहुत बड़े बजट की जरूरत पड़ेगी? मेरी इस शंका पर एक अध्यापक मुस्कराते हैं, उससे तो कम ही लगेगा, जो लखनऊ  में गोमती के सुंदरीकरण पर खर्च किया गया है। कौन समझाए कि राजधानियों को सुंदर रखने के लिए कितने बड़े इलाके को कुरूप रहना पड़ता है। मैं चुप रहता हूं। बहस इस तरफ मुड़ जाती है कि इस बार तो मुख्यमंत्री इसी इलाके के हैं। उनके अपने जिले गोरखपुर का इलाका भी प्रभावित है। शायद कुछ हो जाए। इसी शायद में लोकतंत्र की सांस अटकी रहती है। हम वापस लौट रहे हैं और रास्ते में बोल्डर लदे कुछ ट्रक जा रहे हैं। हर साल बाढ़ आने पर बांध को बचाने के लिए बोल्डर डाले जाते हैं। पांडेजी का अनुमान है कि पिछले 10-15 साल में जितने बोल्डर नदी में डाले गए, उनसे तो एक समांतर बांध बंध जाता। पता नहीं कितनी सच्चाई है, पर ये बोल्डर ही तो बाढ़ को अच्छा बनाते हैं। इन्हीं का जिक्र साईंनाथ ने किया है और इन्हीं की चर्चा से साहब के चेहरे पर संतुष्टि की मुस्कान छा रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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