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मौके जो हुर्रियत ने गंवा दिए

साल 2000 की गरमियों में मैं यासीन मलिक से श्रीनगर के उनके घर पर मिला था। हमारी वह मुलाकात एक छोटे से अध्ययन कक्ष में हुई थी। उस वक्त मलिक 32 साल के थे, और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन के...

मौके जो हुर्रियत ने गंवा दिए
बॉबी घोष, प्रधान संपादक, हिन्दुस्तान टाइम्सTue, 16 May 2017 10:25 PM
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साल 2000 की गरमियों में मैं यासीन मलिक से श्रीनगर के उनके घर पर मिला था। हमारी वह मुलाकात एक छोटे से अध्ययन कक्ष में हुई थी। उस वक्त मलिक 32 साल के थे, और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन के नाते कश्मीरी आकांक्षाओं के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर उभरे थे। वह चेहरा अनेक भारतीयों को असहज करता था। उस चेहरे को शासन के उत्पीड़न ने बिगाड़ दिया। बहरहाल, जब हम उस कमरे के गलीचे पर बैठे, तो मेरी निगाह यासीन मलिक के पीछे रखी किताबों की छोटी-सी अलमारी पर गई, जिसमें महात्मा गांधी की कृतियां भी शामिल थीं। एक पूर्व आतंकी, जो हमसे बातचीत में कश्मीरी ‘मुजाहिदीन’ के खून-खराबे का बचाव कर रहा हो, के घर में गांधी की किताबें! इसकी तो मुझे कतई आशा न थी। 

मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने इन पुस्तकों को पढ़ा है? उन्होंने अलमारी के शीशे का दरवाजा खोल उसमें से एक कई बार पढ़ी गई किताब को खींचते हुए कहा- ‘बिल्कुल, वह एक महान क्रांतिकारी थे।’ मैंने अगला सवाल किया कि एक तरफ अहिंसा के देवदूत की तारीफ और दूसरी तरफ उन आतंकियों की खूनी करतूत का बचाव, जिन्होंने न सिर्फ भारतीय सुरक्षा बलों के जवानों की हत्या की, बल्कि बेगुनाह आम कश्मीरियों का भी कत्लेआम किया। आपने इनमें कैसे सामंजस्य बिठाया है? आखिरकार, गांधी ने अपने दुश्मन को शांतिपूर्ण रास्ते पर चलकर परास्त किया था। मलिक का जवाब था- ‘हां, मगर मेरे साथ जैसा सुलूक हुआ, उसके मुकाबले गांधी के दुश्मन ने उनके साथ काफी उदारता बरती थी।’ अपने चेहरे की तरफ उंगली दिखाते हुए मलिक ने कहा, ‘अंग्रेजों ने उनके साथ कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया।’  

अपने इस बार के श्रीनगर दौरे में मैं यासीन मलिक से नहीं मिल सका, लेकिन गांधी के प्रति उनका कथित अनुराग मेरे जेहन में था। मेरी मुलाकात ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (इसके एक सदस्य यासीन मलिक भी हैं) के दूसरे प्रमुख अलगाववादियों से हुई। मेरे श्रीनगर पहुुंचने के एक दिन पहले ही आतंकियों ने कुलगाम जिले में सात लोगों को मार डाला था। इनमें से पांच पुलिस वाले थे, जो बैंकों के लिए नकदी ले जा रही गाड़ी की सुरक्षा में तैनात थे, जबकि दो अन्य बैंक कर्मचारी थे।

ये सभी कश्मीरी थे, और इनकी हत्या से पूरी घाटी में शोक की लहर दौड़ गई थी, यहां तक कि जो कश्मीरी भारत से मोहब्बत नहीं करते, उन्हें भी आतंकियों की इस करतूत से पीड़ा हुई थी। फेसबुक और वाट्सएप समूहों पर अनेक कश्मीरियों की निगाह में यह हद से बाहर जाना था। उनकी राय में भारतीय सुरक्षा बलों पर आतंकियों का हमला और बात थी, और आम नागरिकों का कत्लेआम और बात। लेकिन न तो मलिक ने, और न ही हुर्रियत ने इस वारदात पर अपना मुंह खोला। भारतीय सुरक्षा बलों की कार्रवाई में एक भी कश्मीरी के मारे जाने पर पूरी घाटी में विरोध-प्रदर्शनों और हड़ताल की फौरन मुनादी करने वाला अलगाववादी समूह सात लोगों के कत्लेआम पर खामोशी ओढ़े रहा। इस चुप्पी से यही संदेश गया कि अगर आतंकी जमातें मासूम कश्मीरियों के भी खून बहाएं, तो इससे उन्हें कोई उज्र नहीं। आखिर हिज्बुल मुजाहिदीन ने इस वारदात की जिम्मेदारी कुबूल की थी और यह अविश्वसनीय-सा दावा भी किया था कि उसने सिर्फ पुलिस वालों को मारा, दोनों बैंककर्मियों को नहीं।

अगर मलिक अपने गांधी पाठ को याद करेंगे, तो उन्हें चौरी-चौरा नाम जरूर याद आएगा। गोरखपुर जिले के इस गांव में पांच फरवरी, 1922 को गांधी के असहयोग आंदोलन में शरीक उग्र प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस थाने को आग लगा दी थी, जिससे थाने के भीतर ही 23 लोग भस्म हो गए थे। महात्मा भी चाहते, तो उस घटना पर मौन धारण कर लेते या एक पूर्णत: अहिंसक आंदोलन की अपवादस्वरूप घटना के तौर पर उसका बचाव कर सकते थे। मगर नहीं! खामोशी बरतने की बजाय उन्होंने इस घटना की तीखी भर्त्सना की और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर दबाव डाला कि वह असहयोग आंदोलन को रद्द करे। कांग्रेस ने यही किया। 12 फरवरी को आंदोलन वापस ले लिया। 

अगर हुर्रियत से यह अपेक्षा करना बहुत ज्यादा है कि कुलगाम हत्याकांड की प्रतिक्रिया में वह अपना अलगाववादी संघर्ष खत्म कर देगा, तो कम से कम उसका नेतृत्व इस हत्याकांड की जोरदार निंदा तो कर ही सकता था, बल्कि उसे ऐसा करना चाहिए था। पूरी घाटी में कुलगाम में मारे गए लोगों के प्रति शोक जताने का एक आह्वान क्या मुनासिब कदम नहीं होता? मगर हुर्रियत ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। न ही उसने पिछले हफ्ते आतंकी हिंसा के शिकार बने एक और कश्मीरी युवा उमर फैयाज के लिए ही कोई आवाज उठाई। फैयाज अपने रिश्तेदार की शादी में शोपियां गए थे, जहां से अगवा करके उनका कत्ल कर दिया गया। पुलिस के मुताबिक, यह भी हिज्बुल मुजाहिदीन की करतूत थी। चूंकि फैयाज भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट थे, इसलिए वह हुर्रियत की सहानुभूति के हकदार नहीं रहे?

इन हत्याकांडों की आलोचना से हुर्रियत कमजोर नहीं होता, बल्कि इसके उलट उसके इस दावे को कहीं ज्यादा मजबूती मिलती कि वह तमाम कश्मीरियों की नुमाइंदगी करता है। लेकिन ये चूक न सिर्फ घाटी में उसके नैतिक आधार को कमजोर करती हैं, बल्कि इन बर्बर आतंकी कृत्यों पर उसकी चुप्पी से हिज्बुल मुजाहिदीन जैसी जमातों को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का हौसला भी मिलता है। जाहिर है, ऐसे में हुर्रियत की आवाज भरोसेमंद नहीं रहेगी। इसका एक अंदाजा तो हिज्बुल कमांडर जाकिर राशिद बट की उस धमकी से ही लग गया था, जिसमें उन्होंने अपने आंदोलन को एक मजहबी लड़ाई की बजाय सियासी आंदोलन बताने के लिए हुर्रियत नेताओं के सिर कलम करने की बात कही थी। इस धमकी के लिए बट को आतंकी संगठन से बाहर कर दिया गया, लेकिन यासिन मलिक और उनके साथी नेता शायद अब से उनकी पृष्ठभूमि व बोली पर गौर करेंगे।
हुर्रियत नेतृत्व अक्सर कश्मीर के हालात की तुलना फलस्तीन से करते हैं। मैं इन दोनों जगहों पर वक्त गुजार चुका हूं, और मैं कह सकता हूं कि इन दोनों में चंद समानताएं हैं। हां! कश्मीरी अलगाववादियों का अपने फलस्तीनी समकक्षों से एक मामले में जरूर समानता है: जो एक इजरायली कूटनीतिक के शब्दों में कुछ यूं है- ‘वे कोई भी अवसर गंवाने का मौका नहीं चूकते।’
इसी महीने हुर्रियत ने ऐसे दो अवसर गंवा दिए।

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