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छोटे शहरों की बड़ी समस्याएं

भले ही पिछले दो-ढाई दशक में भारत ने तेजी से तरक्की की है, मगर यहां स्थानीय (स्थान या क्षेत्रवार) असमानताएं भी काफी बढ़ी हैं। भारत का विकास दरअसल बडे़ शहरों तक सिमटकर रह गया है। यह तस्वीर चीन और...

छोटे शहरों की बड़ी समस्याएं
एजाज गनी, अर्थशास्त्री, वर्ल्ड बैंकTue, 09 May 2017 03:42 PM
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भले ही पिछले दो-ढाई दशक में भारत ने तेजी से तरक्की की है, मगर यहां स्थानीय (स्थान या क्षेत्रवार) असमानताएं भी काफी बढ़ी हैं। भारत का विकास दरअसल बडे़ शहरों तक सिमटकर रह गया है। यह तस्वीर चीन और अमेरिका से बिल्कुल जुदा है, जहां मंझोले शहर विकास व रोजगार सृजन के नए सूत्रधार बने। सवाल यह है कि आखिर सभी आर्थिक गतिविधियां भारत के महानगरों, बडे़ शहरों तक ही क्यों सिमटी हुई हैं? मैन्युफैक्चरिंग व सर्विस सेक्टर (विनिर्माण व सेवा क्षेत्र) का विकास क्या किसी खास स्थान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है? क्या भविष्य में बड़े शहरों से आमदनी कम नहीं होगी? मंझोले शहर आखिर विकास क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या वहां का बुनियादी ढांचा कमजोर है? इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमने 900 जिलों का अध्ययन किया और ‘द स्पैशियल डेवलपमेंट ऑफ इंडिया’ नामक रिसर्च पेपर तैयार किया।

अपने अध्ययन में हमने पाया है कि भारत में विनिर्माण व सेवा क्षेत्रों का विस्तार दुनिया के दूसरे देशों की तरह नहीं हो रहा। दुनिया भर में विनिर्माण संबंधी विकास-कार्य उच्च घनत्व वाले क्षेत्रों (बड़े शहरों) से निकलकर कम घनत्व वाले इलाकों, यानी छोटे शहरों तक पहुंच रहे हैं, जिसके कारण सेवा क्षेत्र का भी विस्तार हो रहा है। मगर हमारे यहां ‘नए’ उद्योग किसी खास स्थान में अधिक सिमटे रहते हैं, जबकि ‘पुराने’ उद्योगों में व्यापक विस्तार की प्रवृत्ति होती है। यहां मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर अब पुराना उद्योग बन गया है और चौथी औद्योगिक क्रांति परवान चढ़ रही है, क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी सेवाओं की मांग बढ़ रही है, जो एक नया उद्योग भी है।

अध्ययन के दौरान हमने यह भी पाया कि भारत के सर्विस सेक्टर और अमेरिका के सर्विस सेक्टर में कुछ समानताएं हैं, जैसे दोनों देशों में शहरों व औद्योगिक इलाकों के इर्दगिर्द ही लोगों को इसका फायदा मिल रहा है। हालांकि दोनों देशों में अंतर भी दिखा कि अमेरिका में ऐसी सेवाएं मंझोले शहरों में ज्यादा हैं। वहां तीन हाई-टेक काउंटी हैं- सांता क्लैरा (कैलिफोर्निया), मिडलसेक्स (मैसाचुसेट्स) और डरहम (उत्तरी कैरोलिना)। जबकि इसके उलट भारत में सेवा क्षेत्र उच्च घनत्व वाले इलाकों में ज्यादा हैं, जैसे हैदराबाद व चेन्नई।

इसके अलावा, अमेरिका में सेवा क्षेत्र का भारी जमावड़ा उन शहरों में भी है, जहां रोजगार-घनत्व प्रति किलोमीटर 150 कर्मचारी से कम है, जबकि भारत में ऐसा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अमेरिका यदि कोई बेंचमार्क तय करता है, तो 150 कर्मचारी प्रति किलोमीटर का घनत्व तमाम आर्थिक गतिविधियों का फायदा उठाने के लिए एक आदर्श स्थिति मानी जाएगी, जबकि भारत के मंझोले शहर इस पायदान पर फिसड्डी दिखते हैं।
यह सही है कि भारत के मंझोले शहरों में विकास की राह की बाधाओं या उसे बेपटरी करती परिस्थितियों की पहचान करना एक चुनौतीपूर्ण काम है। मगर ऐसे सुबूत भी हैं, जिनके आधार पर यह सुझाव दिया जा सकता है कि बडे़ शहरों की तरह लाभ कमाने के लिए हमें दो बातों पर अपनी नीतियां गढ़नी होंगी- पहली, उच्च शिक्षा हासिल करने वाली आबादी के प्रतिशत के आधार पर और दूसरी, दूरसंचार सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले घरों के प्रतिशत के आधार पर। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है, जो यह बताए कि इन दोनों में से किसी एक किसी एक आधार की उपेक्षा करने के बाद भी बड़े शहरों में सेवाओं का विस्तार तेजी से हुआ हो। यानी, अगर देश के सभी हिस्सों में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली स्थानीय आबादी का प्रतिशत एक समान होता या सभी जगहों के घरों में दूरसंचार सेवाएं एक समान मौजूद होतीं, तो भारत में बडे़ शहरों की तरफ लोगों में आज जैसा रुझान न होता।

लिहाजा अमेरिका की तरह भारत की विकास दर में भी अगर इन पैमानों की बात हो, तो बढ़ते सर्विस सेक्टर का फायदा देश के अलग-अलग हिस्सों को मिलेगा। तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे उत्तरी राज्यों में भी काफी तरक्की होगी। अहमदाबाद, पुणे जैसे मध्यम घनत्व वाले शहर और आईटी हब बेंगलुरु भविष्य में तेजी से विकास करेंगे, जबकि चेन्नई और मुंबई जैसे अधिक घनत्व वाले शहरों की रफ्तार अपेक्षाकृत धीमी होगी।

निस्संदेह, तेज विकास के साथ-साथ भारत में स्थानीय विषमताएं भी बढ़ रही हैं। ग्रामीण इलाकों के लोग प्रवासी बनकर लगातार बड़े शहरों में आ रहे हैं। भारत में स्थानीय विकास अब भी उन्हीं जिलों में सिमटा हुआ है, जहां रोजगार के अवसर ज्यादा हैं। सेवा क्षेत्र का मामला इससे अलग नहीं है, मगर हां, विनिर्माण क्षेत्र में मिली-जुली तस्वीर निकलती है। यानी आर्थिक गतिविधियों के ये उच्च घनत्व वाले इलाके भारत के विकास के इंजन हैं। 

यह स्थिति कई महत्वपूर्ण नीतिगत सवाल खड़े करती है। क्या भारत को अब भी तमाम सेवाओं की अहमियत समझते हुए अपने बड़े शहरों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और सामान्य तौर पर स्थान विशेष पर रोजगार मुहैया कराने के लिए अपने संसाधन झोंक देने चाहिए? या फिर उसे मध्यम घनत्व वाले इलाकों यानी मंझोले शहरों के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए और वहां पर विकास की राह में मौजूद बाधाओं को दूर करना चाहिए?

इसमें दोराय नहीं है कि चीन और अमेरिका की तरह भारत में भी विकास और रोजगार के वाहक मंझोले शहर ही बनेंगे। मगर फिलहाल इनकी दशा काफी खराब है। आखिर इन शहरों से फायदा उठाने के लिए कौन-सी ताकत हमारे नियंताओं को रोक रही है? उन्नत अर्थव्यवस्था में उनके हिस्से का विकास उन्हें क्यों नहीं मिल रहा? यदि हमें देश के तमाम हिस्सों में विकास की चमक बिखेरनी है, तो इन गंभीर सवालों के हल तलाशने ही पड़ेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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