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मुगाबे के पतन में चीन की भूमिका

रॉबर्ट मुगाबे 93 वर्ष की परिपक्व आयु में अपने विख्यात जीवन की आखिरी जंग लड़ते दिखे, जब वह आसानी से सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्य तानाशाहों की तरह वह भी मान बैठे थे कि मामूली रूप में ही सही, सत्ता...

मुगाबे के पतन में चीन की भूमिका
हर्ष वी पंत, प्रोफेसर किंग्स कॉलेज, लंदनFri, 24 Nov 2017 12:41 AM
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रॉबर्ट मुगाबे 93 वर्ष की परिपक्व आयु में अपने विख्यात जीवन की आखिरी जंग लड़ते दिखे, जब वह आसानी से सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्य तानाशाहों की तरह वह भी मान बैठे थे कि मामूली रूप में ही सही, सत्ता में बने रहना उनके लिए अपना भविष्य संवारने में मददगार साबित होगा, जो अंधकारमय दिख रहा था। आखिरकार मुगाबे को न सिर्फ राष्ट्रपति का पद छोड़ना पड़ा, बल्कि घोषणा करनी पड़ी कि उन्होंने यह फैसला बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से लिया है। उनके इस फैसले से राजनेताओं और जिम्बाब्वे की आम जनता में खुशी की लहर है। हालांकि जिम्बाब्वे की सेना की मंशा शुरू से साफ थी और मुगाबे की अपनी ही पार्टी जानू-पीएफ ने भी उनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई शुरू कर दी थी, जो दो दिनों में पूरी हो जाती। लेकिन इन तमाम संकेतों और चौतरफा दबाव के बावजूद मुगाबे ने इस्तीफा देने से इनकार करके सबको चौंका दिया था। उन्होंने तो अपने टेलीविजन संबोधन में अगले महीने होने जा रहे जानू-पीएफ की ‘पार्टी कांग्रेस’ में अध्यक्षता करने तक की घोषणा कर दी थी। 

यह सारी उठापटक तब शुरू हुई, जब उप-राष्ट्रपति इमर्सन मनंगाग्वा को बर्खास्तगी के बाद जिम्बाब्वे छोड़ना पड़ा। तमाम लोग इस कार्रवाई को मुगाबे की अपनी पत्नी को बतौर नेता पेश करने की कवायद मान रहे थे। उनके इस कदम से सेना के सब्र का बांध टूट गया और उसने मुगाबे की सत्ता को पलटने और उन्हें नजरबंद करने का फैसला कर लिया। यह तो शुरू में ही साफ हो गया था कि मुगाबे अपना जन-समर्थन खो चुके हैं, इसके बावजूद वह अड़े रहे और हर मुमकिन कोशिश कर पद छोड़ने से बचते रहे। नतीजतन, उनकी खुद की पार्टी ने उनके खिलाफ महाभियोग लाने का फैसला लिया। इसमें मुगाबे पर तमाम तरह के आरोप लगाए जाने वाले थे, जिनमें से एक पत्नी मोह में ‘सांविधानिक शक्तियों को ताक पर रखना’ भी था।
ऐसे भी संकेत मिले कि बुरे अंजाम की आशंका में रॉबर्ट मुगाबे इस संकट से बाहर निकलने के लिए वार्ता करने को तैयार थे। जिम्बाब्वे की सेना ‘मुल्क की मौजूदा स्थिति पर’ मुगाबे के ‘रोडमैप’ से सहमत थी, जिसमें मनंगाग्वा से मुगाबे की सीधी बातचीत की बात कही गई थी। हालांकि अब मनंगाग्वा मुल्क वापस लौट चुके हैं। वह जानू-पीएफ के नेता चुने जा चुके हैं और देश का नेतृत्व संभालने के लिए पदभार ग्रहण करने को तैयार हैं।

अफ्रीकी सियासत में सेना का दखल आमतौर पर नया नहीं है, पर जिम्बाब्वे के इस संकट को सैन्य कार्रवाई नहीं कहा जा रहा है। तख्तापलट की खबरों का सेना ने भी जोरदार खंडन किया है। इसकी वजह किसी हद तक मुगाबे का जिम्बाब्वे के इतिहास में एक ऐतिहासिक कद होना है, तो कुछ हद तक अफ्रीकी महाद्वीप में सेना को समर्थन न मिलना भी है। क्षेत्रीय व वैश्विक आरोपों से बचने के लिए सेना ने बड़ी चतुराई और सावधानी से इस बहस को मुगाबे विरोधी आंदोलन के इर्द-गिर्द कुछ यूं समेट दिया कि उसकी छवि ज्यादा दागदार नहीं दिखती। वैसे भी शीत युद्ध के सफलतम दिनों से तुलना की जाए, तो अफ्रीका में सेना की आभा पहले की अपेक्षा कमजोर ही हुई है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अफ्रीकी संघ (एयू) और दक्षिण अफ्रीकी विकास समुदाय (एसएडीसी), दोनों  ही सैन्य तख्तापलट का समर्थन करने के प्रति अनिच्छुक दिखे।

जिम्बाब्वे के इस पूरे घटनाक्रम का सबसे चौंकाने वाला पहलू इसमें चीन की भूमिका है। चीन की दखलंदाजी को लेकर कयास लगाए जाते रहे हैं। कहा जा रहा है कि मुगाबे को पद से बेदखल करने की जिम्बाब्वे सेना की योजना से चीन पहले से अवगत था। मुगाबे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के चंद दिनों पहले ही जिम्बाब्वे के सेना प्रमुख कॉन्सटैनटिनो चिवेंगा बीजिंग गए थे। जाहिर सी बात है, बीजिंग ने इस आरोप से साफ-साफ इनकार किया है, और कहा है कि जनरल चिवेंगा का वह दौरा एक ‘सामान्य सैन्य दौरा’ था। उसका यह भी कहना है कि ऐसी खबरें उसकी छवि खराब करने के लिए प्रसारित की गई हैं और यह एशिया महाशक्ति और अफ्रीका के बीच ‘तनाव पैदा करने’ की सोची-समझी कोशिश है।

उल्लेखनीय है कि चीन और जिम्बाब्वे उस समय से ही करीब हैं, जब मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर पश्चिमी देशों ने जिम्बाब्वे पर कई प्रतिबंध लगाए थे और मुगाबे ने अपनी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ यानी पूरब की तरफ देखो नीति की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया था। मुगाबे ने तब साफ-साफ कहा था, ‘हम अब पूरब की ओर देखने लगे हैं, जहां सूरज उगता है और हमने अपनी पीठ पश्चिम की तरफ कर ली है, जिधर सूरज डूबता है।’ चीन ने भी अपनी तरफ से न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जिम्बाब्वे के खिलाफ लगाए जा रहे प्रतिबंधों पर वीटो कर दिया था, बल्कि वह हरारे के एक बड़े निवेशक, कारोबारी साथी और रक्षा उपकरणों के आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरकर सामने आया। इसी साल जनवरी में मुगाबे ने चीन का दौरा उस वक्त किया था, जब मुगाबे की आर्थिक नीतियों से बीजिंग के चिंतित होने की खबरें हवा में तैर रही थीं। दरअसल, मुगाबे ने जिम्बाब्वे में हीरा-खदानों के राष्ट्रीयकरण का फैसला ले लिया था, जो बीजिंग के गले नहीं उतर रहा था। चीन वहां निवेश का बेहतर माहौल बनाना चाहता है और खबर है कि इसी वजह से वह मनंगाग्वा का समर्थन कर रहा है।

बहरहाल, जिम्बाब्वे में चीन की इस रुचि को आश्चर्य की नजरों से नहीं देखना चाहिए। इतिहास गवाह है कि ताकतवर मुल्क हमेशा से ऐसा करते रहे हैं। चीन भी अब महाशक्ति बन चुका है। ऐसे में, उसके लिए इस तरह किसी दूसरे मुल्क में दखल देना या दिलचस्पी लेना आम माना जाएगा। ऐसे मामलों में हर बार चीन का नाम सामने आने पर हमें चौंकना नहीं चाहिए। चीन की इस मंशा का गवाह जिम्बाब्वे कोई आखिरी उदाहरण भी नहीं है। यह तो महज एक शुरुआत है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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