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सख्त दलित ऐक्ट की जरूरत क्यों

यह घटना विगत सदी की नहीं है, न ही हिमालय की गोद में बैठे किसी गांव की, जहां सूरज की रोशनी भी हमेशा नहीं पहुंच पाती। यह घटना ग्राम निजामपुर की है। उत्तर प्रदेश में कासगंज स्थित निजामपुर सबसे बड़ा गवाह...

सख्त दलित ऐक्ट की जरूरत क्यों
चंद्रभान प्रसाद दलित चिंतकThu, 02 Aug 2018 11:53 PM
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यह घटना विगत सदी की नहीं है, न ही हिमालय की गोद में बैठे किसी गांव की, जहां सूरज की रोशनी भी हमेशा नहीं पहुंच पाती। यह घटना ग्राम निजामपुर की है। उत्तर प्रदेश में कासगंज स्थित निजामपुर सबसे बड़ा गवाह है दलित ऐक्ट के पक्ष में। बात इसी 15 जुलाई की है। दलित संजय जाटव की शादी दलित दुल्हन शीतल सिंह से होनी थी। दूल्हा घोड़े की बग्घी पर सवार था। आगे बैंड पार्टी चल रही थी। बॉलीवुड की धुन पर नौजवान बाराती डांस कर रहे थे। शाम छह बजे का समय था। क्या नजारा था! बारात को 350 पुलिस पार्टी का संरक्षण था। आगे-पीछे पीएसी के जवान थे। जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक बंदूकों से लैस जवानों का नेतृत्व कर रहे थे। इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर भी स्थिति पर नजर बनाए हुए थे। निजामपुर गांव एक रणभूमि में इसलिए तब्दील हो गया, क्योंकि पहली बार इस गांव में घुड़-बग्घी पर सवार दलित दूल्हा मुख्य रास्ते से अपनी बारात ले जा रहा था। एक दलित होने का यह अर्थ है। यदि दूल्हा संजय  जाटव गधे पर सवार होता, तो गांव के सवर्ण शायद तालियों से उसका स्वागत करते।
मात्र दो दिन पहले गुजरात में अहमदाबाद के कविथा गांव में दो दलित नौजवानों पर इसलिए हमले हो गए, क्योंकि उन्होंने नुकीली मूंछें बढ़ानी शुरू कर दी थी। मार्च में भावनगर जनपद के उमराला गांव में सवर्णों ने एक दलित की इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह खुद के खरीदे घोडे़ पर घुड़सवारी करने लगा था। अप्रैल माह में मध्य प्रदेश के मालवा के एक गांव में सवर्णों ने  दलित बस्ती के कुएं में किरोसिन का तेल डाल दिया। बस्ती में यही हुआ था। वहां ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एक दिन पूर्व दलित परिवार ने अपनी बेटी की शादी में बैंड बाजा मंगवा लिया था। मध्य प्रदेश के  टीकमगढ़ जिले में एक दलित की इसलिए पिटाई हो गई, क्योंकि उसने सरपंच के घर के सामने से अपनी बाइक निकाली थी। कुछ महीने पहले सहारनपुर के घड़कौली गांव में दलित बस्ती से सटे ‘द ग्रेट चमार बोर्ड’ पर सवर्ण अभी तक तीन हमले कर चुके हैं। दलितों पर तरह-तरह की वजहों से हमले हो रहे हैं, जिसमें नए कपड़े पहनने, यहां तक कि ‘सन ग्लास’ पहनने के लिए भी हमले हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बदायूं के गद्दी चौक एरिया में आंबेडकर की प्रतिमा को लोहे की छड़ों से घेर दिया गया है। एक तरह से पिंजड़े में बंद कर दिया गया है, ताकि प्रतिमा को सवर्ण क्रोध का शिकार न बनना पड़े। देश भर में आंबेडकर प्रतिमाओं पर हमले की खबरें अब सामान्य बात बनकर रह गई हैं।
दलित ऐक्ट वर्ष 1989 में आया था, इससे पहले एक और ऐक्ट था, जिसे प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट ऐक्ट कहते हैं। 1955 में बना यह कानून मूलत: छुआछूत के विरुद्ध था, वर्ष 1989 का ऐक्ट अत्याचार के विरुद्ध। वर्ष 1989 के दलित ऐक्ट को वर्ष 2015 में फिर से संशोधित करके और सख्त किया गया। यहां देश और दलित की प्रगति के अंतर्विरोध को देख लें। देश 1947 में स्वतंत्र हुआ, 1950 में संविधान लागू हुआ। उम्मीद  थी कि नए संविधान के तहत, नए राष्ट्र में लोग स्वयं ही छुआछूत और जात-पांत को छोड़ देंगे। लेकिन पांच वर्ष में छुआछूत के विरुद्ध कानून की जरूरत पड़ गई। वर्ष 1950 और 1989 के 39 वर्षों का अंतर देखिए। आजादी, खासतौर से संविधान लागू होने के बाद भारत प्रगति पथ पर चल निकला। हरित क्रांति का असर दिखने लगा था। आरक्षण के कारण दलितों में एक मध्य वर्ग की झलक दिखने लगी थी, गैर दलितों के एक हिस्से को यह खलने लगा। दलितों पर दो-तरफा हमले शुरू हो गए। हिंसक वारदातें तथा दलित अफसरों की गोपनीय रिपोर्ट पर लाल स्याही की वारदातें।
दलितों पर हमले रोकने के लिए वर्ष 1989 में दलित ऐक्ट आया और दलित अफसरों के प्रमोशन में रोडे़ अटकाने के विरुद्ध नब्बे के दशक में प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ी। भारत बदल रहा है, जाति व्यवस्था भी कमजोर पड़ती जा रही है, लेकिन जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हुई। दलित अफसर एक मातहत की तरह तो स्वीकार्य थे, यहां तक कि सहकर्मी के रूप में भी, मगर एक बॉस के रूप में नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे निजामपुर गांव में दलित दूल्हा घुड़-बग्घी पर स्वीकार्य नहीं, चाहे वह बग्घी अपनी कमाई से क्यों न लाया हो?
इसके बाद 1989 और 2015 में 26 वर्षों का अंतराल है। वर्ष 1991 में आर्थिक सुधार शुरू हुए, देश में आर्थिक क्रांति सी आ गई, उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ, शहरीकरण की गति उससे अधिक रही। करोड़ों दलितों को उद्योगों, शहरों में काम मिला। सवर्णों के दरवाजे सूने पड़ने लगे। दलित उनकी मुट्ठी से अब आजाद हो रहा था। उद्योगों, शहरों में मजदूरी कैश में मिलती है, इसलिए अब दलित भी उन चीजों को खरीदने लगे, जिनकी चार दशक पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। चार दशक पहले तक रोटी और लाल मिर्च के लिए संघर्षरत दलित की दूसरी पीढ़ी सन ग्लास, स्पोट्र्स शू, जीन्स और बाइक के सपने देखने लगी। दलितों के खिलाफ माहौल कुछ ज्यादा ही बनने लग गया, इसे देखते हुए  2015 में दलित ऐक्ट को और कड़ा करना पड़ा।
वर्ष 1950 और 2014 के बीच 65 वर्षों का अंतराल है। इस दौरान भारत समृद्धिशाली बना, जाति व्यवस्था कमजोर पड़ गई, दलितों में एक सशक्त मध्यवर्ग बना, तथा व्यापक दलित समाज सवर्ण सत्ता से मुक्त हो गया। इन 64 वर्षों में सवर्णों के बीच से एक अंडर क्लास पैदा हुआ, जिसकी सुधि किसी ने नहीं ली। सवर्णों का यही तबका गुस्से में निराश बैठा था। यह तबका अब हिंसक बन बैठा है। दलित ऐक्ट को और मजबूत करने की बजाय न्यायपलिका ने इसे दंतविहीन कर दिया।
विगत 70 वर्षों में भारत आर्थिक-सामाजिक क्रांति के दौर से गुजर चुका है। ढेर सारी उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं, पर इस दौरान भारत ने कुछ खोया भी है। देश ने सवर्ण सत्ता खोई है, जाति टूट रही है। दुर्भाग्यवश, कुछ लोग जाति को राष्ट्र मानते हैं, इसीलिए वे कहते हैं कि 70 वर्षों में राष्ट्र कमजोर हो गया। दलित ऐक्ट इन्हीं तरह के लोगों के लिए बना है। इसे और मजबूत करना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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