आइए इस फैसले को नया विस्तार दें
केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी के गहरे अर्थ हैं। अगर आला अदालत का यह मत अपने मूल अर्थों में जमीन पर उतर सका, तो हम एक नए बदलाव के गवाह बनेंगे।...
केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी के गहरे अर्थ हैं। अगर आला अदालत का यह मत अपने मूल अर्थों में जमीन पर उतर सका, तो हम एक नए बदलाव के गवाह बनेंगे। अदालत ने मंदिर में महिलाओं के खिलाफ भेदभावपरक बंदिशों को संविधान के खिलाफ माना है। उसने कहा है कि जब संविधान महिला और पुरुषों में कोई भेद नहीं करता, तो फिर मंदिर के कर्ता-धर्ता भला यह कैसे कर सकते हैं?
वाकई, मंदिर में प्रवेश महिलाओं का सांविधानिक और धार्मिक, दोनों अधिकार है। किसी भी धर्म में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जिससे महिलाओं के दोयम दरजे होने का बोध होता हो। हर जगह औरतों को पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने की बातें हैं। जब धर्म किसी तरह का अंतर नहीं करता, तो फिर आस्था के केंद्र ऐसा कैसे कर सकते हैं? अपने इबादतगाह जाने की वे भी बराबर की अधिकारी हैं। रही बात ईश्वर की, तो वह सबके लिए समान है। वह भक्तों में कोई अंतर नहीं करता। कुछ यही तर्क संविधान को लेकर भी दिए जा सकते हैं। हमारा संविधान जाति-धर्म-लिंग आदि के आधार पर विभेद की कतई वकालत नहीं करता। लिहाजा अगर कोई संस्था या व्यक्ति किसी तरह का भेदभाव करता है, तो वह संविधान की अवहेलना ही है।
मैं शुरू से महिलाओं की इस लड़ाई में शामिल रही हूं। मेरा तो हमेशा से यही मानना था कि जब कभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आएगा, तो निश्चित तौर पर हम महिलाओं के हक में ही फैसला होता पाएंगे। हालांकि जरूरी यह भी है कि अधिकारों की यह बहस सिर्फ सबरीमाला तक ही सिमटी न रहे। देश भर में जहां कहीं भी औरतों के साथ किसी तरह का भेदभाव किया जा रहा हो, उसे पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए। देश में अब भी कई ऐसे धार्मिक केंद्र हैं, जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। ऐसे में, यह जिम्मेदारी संसद की बन जाती है कि वह जल्द ही इस तरह का कोई कानून बनाए कि हर जगह से भेदभाव खत्म हो सके। लोगों में यह संदेश जाना ही चाहिए कि महिलाओं के साथ किसी तरह का कोई भेद स्वीकार्य नहीं है।
हमारा समाज महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार करता है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है। सबरीमाला विवाद का एक महत्वपूर्ण पक्ष महिलाओं की माहवारी है। इसी का उदाहरण काफी कुछ जाहिर कर देता है। मसलन, माहवारी के दौरान औरतें रसोई में नहीं जा सकतीं। वे खाना वगैरह नहीं छू सकतीं। घर के बाहर वाले कमरे में रहती हैं, और तमाम तरह की बंदिशें झेलने को मजबूर की जाती हैं। लेकिन मामला सिर्फ माहवारी का नहीं है। चंद अपवादों को छोड़ दें, तो बेशक महिलाएं विभिन्न मोर्चों पर कामयाबी का झंडा बुलंद कर रही हैं, पर उन्हें आज भी फैसले लेने का पूरा अधिकार हासिल नहीं हो सका है। वे घर की मुखिया नहीं मानी जातीं। उनके लिए पुरुषों के साये में रहना अनिवार्य होता है। अगर कोई महिला ताउम्र अकेले जीवन गुजारने की सोचती है, तो उसके चरित्र पर कई तरह के सवाल उठाए जाते हैं। शादी करके पति की सेवा को उनके जीवन का ध्येय बताया जाता है।
महिलाओं के प्रति इसी तरह के व्यवहार से समाज में यह धारणा पैदा हुई है कि वे पुरुषों से कमतर होती हैं। यह औरतों का सामाजिक दरजा नीचे गिराने की कोशिश है। ऐसा करके उनके महत्व को खारिज किया जाता है। महिलाओं के साथ आज होने वाले अत्याचार-दुराचार या हिंसा की यह एक बड़ी वजह है। आलम यह है कि समाज में बलात्कार की घटनाएं तो बढ़ ही गई हैं, परिवार में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं रहीं। उनके खिलाफ कई तरह की हिंसा होने लगी है। शिक्षा व रोजगार में तो उन्हें कभी भी पर्याप्त अवसर नहीं मिलते। औरतों की दुर्गति की असल वजह यह पुरुष वर्चस्ववादी सोच, क्या बदलनी नहीं चाहिए?
अच्छी बात है कि भारतीय संविधान इन तमाम भेदभावों से ऊपर है। उसने पहले ही औरतों और पुरुषों को समान माना है। संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का तो स्पष्ट मानना था कि जिस देश में महिलाएं सम्मानित नहीं हैं और जहां उन्हें बराबरी का दर्जा हासिल नहीं है, वह देश कतई आगे नहीं बढ़ सकता। संभवत: हिन्दुस्तान के पिछड़ेपन का यह एक बड़ा कारण है। इसलिए जरूरी है कि अब धर्म के ठेकेदार पीछे हट जाएं और महिला-विरोधी बातों को समाज पर लादने की कोशिश न करें। धर्म तो ऐसी बातों का विरोध करता ही है, अब अदालत ने भी किया है। लिहाजा धर्म के कथित पहरुओं को भी अब स्वीकार कर लेना चाहिए कि महिला और पुरुष बराबर हैं। वे हर वह काम कर सकती हैं, जो पुरुष कर सकता है। उन्हें यह हक मिलना ही चाहिए।
हालांकि एक सवाल यह भी है कि क्या समाज में गहरे पैठी यह महिला-विरोधी सोच सिर्फ कानून से खत्म हो पाएगी? मेरा मानना है कि कानून तभी कारगर हो सकता है, जब लोग उसको लेकर खुद संजीदा होंगे। देश में दहेज के लेन-देन को रोकने के लिए भी तो कानून है। मगर क्या दहेज जैसी बुराइयां खत्म हो गईं? नहीं। यानी सिर्फ कानून हालात नहीं बदलते, लोगों को खुद आगे बढ़ना होता है। इसलिए बड़ी जिम्मेदारी उन लोगों पर है, जो जागरूक हैं और मानवाधिकार का समर्थन करते हैं।
आने वाले दिनों में समाज में सांस्कृतिक बदलाव जरूर होंगे। इसके लिए हमें लैंगिक समानता की ओर बढ़ना होगा। हर परिवार को इसमें अपना हाथ बंटाने की जरूरत है। उन्हें शपथ लेनी होगी कि वे लड़के और लड़कियों में किसी तरह का भेदभाव नहीं करेंगे। उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य का समान अवसर देंगे। दोनों की पसंद को बराबर तरजीह देंगे। एक महत्वपूर्ण फैसला समाज यह भी कर सकता है कि वह दहेज न लेगा, और न देगा। हमारे नीति-निर्माताओं के लिए भी आवश्यक है कि वे संविधान में मिले अधिकार औरतों को दें। सबसे ज्यादा जरूरी तो यही है कि लोकतंत्र का मंदिर (संसद) प्रतिनिधित्व के मामले में उनके साथ कोई विभेद न करे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)