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जाति से आगे नहीं सोचती राजनीति

जातियों का उद्भव राजनीति के लिए नहीं हुआ था। मगर आज जातियां भारतीय राजनीति को आधार दे रही हैं। कहते हैं कि जातियों का उद्भव व्यवसायों व पेशों से जुड़ा था। पहले पेशे से ही जातियां निर्धारित होती थीं।...

जाति से आगे नहीं सोचती राजनीति
बद्री नारायण निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानSun, 15 Jul 2018 11:29 PM
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जातियों का उद्भव राजनीति के लिए नहीं हुआ था। मगर आज जातियां भारतीय राजनीति को आधार दे रही हैं। कहते हैं कि जातियों का उद्भव व्यवसायों व पेशों से जुड़ा था। पहले पेशे से ही जातियां निर्धारित होती थीं। फिर ये ‘जन्मना’ अर्थात जन्म से जुड़ गईं। आज के दौर में, जब जातियों को ‘पहचान ’ से जोड़कर उनका आक्रामक राजनीतिक इस्तेमाल किया जाने लगा है, तब इनकी एक नई भूमिका बन गई। यह नई भूमिका औपनिवेशिक काल से ही प्रारंभ हो गई थी। आजादी के बाद जब भारतीय समाज में लोकतंत्र के विकास की गति तेज होने लगी, तो ‘पहचान’ की राजनीति का एक आधार जाति हो गई। ऐसे में, भारतीय लोकतंत्र का एक अनोखा विकास देखा गया, जिसमें जाति, धर्म व चुनावी लोकतंत्र एक-दूसरे में गुत्थम-गुत्था होकर विकसित होते गए। यहां पश्चिमी लोकतंत्र से भिन्न इसका एक अलग ही रूप विकसित होता गया। राजनीतिक व्याख्याकारों के बीच यह माना जाता है कि लोकतंत्र जिन समाजों में विकसित होता है, वहां की पुरानी देशज प्रक्रियाओं और परंपराओं का भी प्रभाव उस पर पड़ता है।
चुुनाव में जातियों का महत्व और जातीय गोलबंदी आजादी के बाद के शुरुआती चुनावों में भी देखी गई थी। हालांकि राष्ट्रवाद की भावना ने जाति की अस्मिताओं को तब आकार नहीं लेने दिया था। मगर धीरे-धीरे 60 के दशक तक जातियां चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करने लगीं। भारत में समाजवादी राजनीति ने पिछड़े वर्ग के उभार में बड़ी भूमिका निभाई। उसने ‘पहचान’ की चाह पैदा की। आजादी के पहले कई जातियों ने अपनी जातीय सभाएं व संगठन बनाए थे। इन जातीय सभाओं ने समाज सुधार की दिशा में तो काम किया ही, पहचान की राजनीति को विकसित होने का भी आधार दिया था। आजादी के बाद भारतीय चुनावों ने जाति केंद्रित राजनीति को उभार दिया। इसके बाद आरक्षण के प्रावधानों, आरक्षण केंद्रित विवादों और आंदोलनों ने अस्मिता की राजनीति को बलवान किया। पिछड़ी और दलित जातियों के उभार ने पहचान की राजनीति को आकार दिया। 90 के दशक में पहचान की राजनीति चुनावी लोकतंत्र में निर्णायक होकर उभरी। इसने अपनी सीमाओं के बावजूद भारतीय जनतंत्र का प्रसार भी किया और सीमांत पर बसे समुदायों की हिस्सेदारी कुछ हद तक सुनिश्चित भी की। पहचान की इस राजनीति का विस्तार इस हद तक हुआ कि भारतीय राजनीति में जाति आधारित दल बनने लगे। आजादी के पूर्व जातीय संगठन काम तो कर रहे थे, पर वे समाज सुधार और जाति उन्नयन के काम में लगे थे। अब जाति आधारित राजनीतिक दल की पहचान, राज्य केंद्रित योजनाओं व सत्ता में अपनी संख्या आधारित हिस्सेदारी से जुड़ गई। इसके लिए ये दल अपने सांसद, विधायक जिताकर उनके माध्यम से सरकार व सत्ता में अपनी हिस्सेदारी का दावा करने लगे। 
अभी हाल में उत्तर प्रदेश में जाति विशेष पर आधारित कई छोटे-छोटे दल सामने आए, जैसे निषाद पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल वगैरह। प्रदेश के गोरखपुर में हुए उपचुनाव में निषाद पार्टी के अध्यक्ष के बेटे को समाजवादी पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाकर जिताया। यह निषाद जाति के वोटों को समाजवादी पार्टी द्वारा अपने आधार मतों से जोड़ने की कोशिश थी, जिसमें वह सफल हुई। अपना दल और राजभर पार्टी तो भाजपा सरकार में शामिल हो सत्ता में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही हैं। भारतीय राजनीति में जाति आधारित ये छोटे-छोटे दल कई बार सौदेबाजी की शक्ति विकसित कर लेते हैं। इस आधार पर भारतीय राजनीति में अनेक बार जोड़-तोड़ की राजनीति की प्रवृत्ति भी मजबूत होती है। अगर आप भारतीय राजनीति में दलों की प्रवृत्ति का मूल्याकंन करें, तो जाहिर होगा कि कुछ ही जातियां अभी राजनीतिक दल बनाने की शक्ति अपने में विकसित कर पाई हैं। ये प्राय: वे जातियां हैं, जो संख्या बल में तुलनात्मक रूप से अधिक हैं, जिन्होंने एक शिक्षित तबका, नेतृत्व की शक्ति, पहचान के स्रोत, जैसे अपने नायक, अपना गौरवमयी इतिहास विकसित कर लिया है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी तो अपने जातीय नायक सुहेलदेव के नाम पर गठित ही की गई है। सुहेलदेव के इतिहास पर इस जाति का अपना दावा है। वह अन्य जातियों को अपनी पहचान के स्रोतों में घुसने की इजाजत नहीं देती। पहचान के ये स्रोत अपने समूह की विशिष्टता पर आधारित होते हैं।
पहचान की राजनीति एक तरफ और एक ही साथ ‘जोड़क व तोड़क’, दोनों प्रकार की भूमिकाएं निभाती है। एक तरफ दलित व पिछड़ा जैसी अस्मिता को जगाकर उन्हें जोड़ा जाता है, तो वहीं जातीय अस्मिता के रूप में संकीर्ण होते हुए, लघु से लघुतम होते हुए बड़ी कोटियों को छोटी कोटियों में विभाजित भी करता है। एक तरफ इस राजनीति से कोई सामाजिक समूह शक्तिवान होता दिखता है, तो वहीं दूसरी तरफ इन सामाजिक समूहों में भी एक सशक्त वर्ग उभर आता है, जो राज्य सत्ता और सरकार में मिलने वाली हिस्सेदारी में से ज्यादातर हिस्सा प्राप्त कर लेता है। पहचान की राजनीति समूहों को स्रोतों और योजनाओं तक पहुंच तो बना देती है, लेकिन उनका समाज वितरण सुनिश्चित नहीं करा पाती।
जाति आधारित दल अगर ऐसे ही विकसित होते गए, तो धीरे-धीरे भारतीय चुनावी लोकतंत्र और उससे उपजने वाली सरकारें विभिन्न जातियों के एक समागम के रूप में दिखने लगेंगी। इसमें इन जातियों को सत्ता में कुछ हिस्सेदारी तो मिलेगी, पर भारतीय लोकतंत्र दूसरी ही दिशा में बढ़ने लगेगा। हिस्सेदारी का भी अगर आकलन करें, तो पिछड़ी और सीमांत जातियां जो खुद एसर्ट करके शक्ति प्राप्त कर रही हैं, उन्हें ही जगह मिलेगी। उनमें भी उनका एक छोटा सा प्रतिशत, जो शक्तिवान है, वही सत्ता के बड़े हिस्से को अपने में सोख लेगा। जाति आधारित राजनीतिक दल लोकतांत्रिक अवसरों को वितरित करने की प्रक्रिया में निहित विफलता के परिणाम हैं। वैसे तो यह उभार समाज में अवसरों और राज्य के स्रोतों के समान वितरण का दावा करते हैं, मगर आधार तल पर देखें, तो इसी प्रक्रिया में एक नई प्रकार की असमानता भी पैदा होती है। हमें यह देखना होगा कि ‘जाति मुक्त समाज’ का हमारे संतों-विचारकों का मिशन पूरा होने में जाति आधारित राजनीति से आगे कैसी-कैसी समस्याएं पैदा होंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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