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मतदान से पहले फौज की जीत तय

पाकिस्तान आज अपनी नई पार्लियामेंट को चुनने जा रहा है। ऊपरी तौर पर तो यह चुनाव 2008 के बाद दूसरी बार वहां लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता के हस्तांतरण का संकेत दे रहा है और अहम यह भी है कि पाकिस्तान की...

मतदान से पहले फौज की जीत तय
अशोक बेहुरिया सीनियर फेलो आईडीएसएWed, 25 Jul 2018 12:45 AM
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पाकिस्तान आज अपनी नई पार्लियामेंट को चुनने जा रहा है। ऊपरी तौर पर तो यह चुनाव 2008 के बाद दूसरी बार वहां लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता के हस्तांतरण का संकेत दे रहा है और अहम यह भी है कि पाकिस्तान की जम्हूरियत को पिछले एक दशक में किसी फौजी हस्तक्षेप का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन हकीकत यह भी है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र ने अब भी अपनी जड़ें नहीं पकड़ी हैं। ताकतवर सैन्य सत्ता प्रतिष्ठान ने अब परदे के पीछे से सभी चीजों को नियंत्रित करने का रास्ता अख्तियार कर लिया है। कहा भी जाता है कि देशों के पास सेना होती है, ताकि वह उनकी रक्षा कर सके; पाकिस्तान में सेना के पास एक मुल्क है, जो उसके हितों की रक्षा करता है।  

पाकिस्तान एक ‘नियंत्रित लोकतंत्र’ है। वहां के नागरिक भी फौज के मातहत जीने के आदी होते जा रहे हैं। यहां तक कि फौज चुनाव नतीजों को भी नियंत्रित करना चाहती है और वह यह सुनिश्चित करती है कि किसी भी दल को ऐसा अपार जनादेश न मिलने पाए, जो उसकी सत्ता के लिए चुनौती बन सके। पाकिस्तानी चुनाव आयोग के मुताबिक, लगभग 10.56 करोड़ मतदाता आज 272 सीटों के लिए 3,459 उम्मीदवारों की तकदीर का फैसला करेंगे। साथ ही सूबाई विधानसभाओं की 577 सीटों के लिए 8,396 प्रत्याशियों में से वे अपने नुमाइंदे चुनेंगे। उम्मीद है, इस बार वोटरों की भागीदारी कुछ बढ़ेगी। पिछली बार यानी 2013 के इंतिखाब में 53 फीसदी वोटरों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था, जो पिछले 25 वर्षों के औसत 41 प्रतिशत वोटिंग से 12 फीसदी ज्यादा था।

पाकिस्तान की अंदरूनी सियासत को अब एक नया खिलाड़ी भी प्रभावित कर रहा है और वह खिलाड़ी है उसकी न्यायपालिका। पाकिस्तानी न्यायपालिका ने नागरिक नेतृत्व को कमजोर और फौज के हाथ को मजबूत किया है। इसने नवाज शरीफ जैसे लोकप्रिय नेता को राजनीति से बाहर कर दिया है, जबकि उनके पास पार्लियामेंट में बहुमत भी था। लेकिन न्यायपालिका ने संविधान के ‘अनुच्छेद 62’ के तहत उन्हें ‘सादिक और अमीन’ नहीं पाया और उन्हें चुनावी राजनीति के अयोग्य करार दिया। चुनाव-पूर्व हुए कई सर्वेक्षणों का कहना है कि मुख्य मुकाबला पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के बीच ही है। माना जा रहा है कि पीटीआई को फौज की हिमायत हासिल है और पीएमएल-एन के शासनकाल की कमियां उजागर करने और असली विकल्प के तौर पर इमरान व उनकी सियासी जमात को प्रोजेक्ट करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया का जबर्दस्त इस्तेमाल किया जा रहा है।

बीती 4 जुलाई को ग्लोबल स्ट्रैटेजिक पार्टनर्स और 12 जुलाई को एसडीपीएल-हेराल्ड के ताजातरीन सर्वेक्षणों के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर पीटीआई ने पिछले कुछ महीनों में पीएमएल-एन से अपना फासला जरूर कम किया है, मगर पंजाब सूबे में पीएमएल-एन को अब भी बढ़त हासिल है। खैबर पख्तूनख्वा में जहां इमरान की पार्टी स्पष्ट रूप से आगे है, तो वहीं सिंध में पीपीपी की पकड़ बनी हुई दिखती है। बलूचिस्तान में स्थिति काफी अस्पष्ट है। पारंपरिक मजहबी पार्टियां मुत्ताहिदा मजलिस-ए-अमल (एमएमए) के परचम तले एकजुट होकर मैदान में हैं।
साल 2013 के चुनावों में 272 संसदीय सीटों में से 126 पर पीएमएल-एन ने कामयाबी हासिल की थी, जिनमें से ज्यादातर उसने पंजाब (118 सीटें) सूबे से जीती थीं। जो पीटीआई इस समय सत्ता की दावेदार के तौर पर तेजी से उभर रही है, उसने पिछले आम चुनाव में नेशनल असेंबली की महज 28 सीटें जीती थीं और पीपीपी को 34 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। इस बार नवाज शरीफ की पार्टी को नुकसान पहुंचाने के इरादे से परदे के पीछे की ताकतों ने कुछ सियासी इंजीनियरिंग की है। पीएमएल-एन के कई बागियों को उकसाया गया है कि वे जीप निशान के साथ चुनाव लड़ें, ताकि पीएमएल-एन के वोटों का विभाजन हो सके। कुछ कट्टरपंथी मजहबी ताकतें भी पीएमएल-एन से उसकी पारंपरिक वोट छीनने को तैयार हैं। हाफिज सईद की मिल्ली मुस्लिम लीग (एमएमएल), जो लश्कर-ए-तैयबा का सियासी मोर्चा है, अल्लाहु अकबर तहरीक पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ रही है, तो बरेलवी मौलाना खादिम हुसैन रिज्वी की पार्टी तहरीक लबैक या रसूल (टीएलवाईआर) भी पीएमएल-एन को नुकसान पहुंचाने के इरादे से मैदान में है। सिंध के मोहाजिर, जो मूलत: कराची, हैदराबाद और सकूर में घने बसे हैं, आम तौर पर एमक्यूएम को वोट देते रहे हैं। मगर पार्टी की अंदरूनी लड़ाई की वजह से वे इस बार बंटे हुए हैं। मुमकिन है कि इस बार एमक्यूएम पिछले चुनावों जैसा प्रभावी प्रदर्शन न कर पाए।

विभिन्न पार्टियों के घोषणापत्र रोटी, कपड़ा और मकान जैसी जिंदगी की जरूरियात को महत्व देते दिखते हैं। उनमें हिन्दुस्तान किसी चुनावी मुद्दे के तौर पर शुमार नहीं। फिर भी, इमरान खान ने अपनी चुनावी तकरीरों में हिन्दुस्तान से बेहतर ताल्लुकात की नवाज की कोशिशों के लिए उन्हें विलेन ठहराने की कोशिश की। हालांकि वह भारत के साथ ऐसी बातचीत शुरू करने की भी हामी भरते रहे, जिसमें मुख्य मुद्दा कश्मीर को रखा जाए। इन चुनावों में इमरान के लिए भ्रष्टाचार मुख्य मसला है, जबकि पीएमएल-एन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे और खास तौर से पंजाब में किए गए अपने विकास कार्यों को मुद्दा बनाया है।

यह सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सत्ता का पावर हाउस पंजाब है, और वही इस बार भी तय करेगा कि अगली हुकूमत किसकी बनेगी। ऐसा लगता है कि परदे के पीछे फौज की तमाम कारस्तानियों के बावजूद पीएमएल-एन पंजाब में अपना आकर्षण बरकरार रखे हुए है। ऐसे में, पीटीआई बहुमत से दूर रह सकती है। त्रिशंकु संसद की संभावना को देखते हुए एमक्यूएम, जेयूएल-एफ/एमएमए और पीपीपी जैसी पार्टियां किंगमेकर बन सकती हैं। जाहिर है, यह स्थिति फौज के मुफीद ही होगी, क्योंकि फौज जानती है कि गठबंधन सरकार उसकी हैसियत को चुनौती नहीं दे सकेगी। इसलिए इमरान जीते या हारें, असली विजेता तो फौज ही बनकर उभरेगी। 

भारत के लिए इसके निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट हैं। फौज के मजबूत रहते हुए पाकिस्तान की भारत संबंधी नीति नहीं बदलेगी और न ही दोनों मुल्कों के रिश्तों में कोई खास प्रगति होगी। यहां तक कि यदि इमरान भी जीतते हैं, तब भी कट्टरपंथियों व फौज से उनके करीबी रिश्ते को देखते हुए भारत के प्रति पाकिस्तान का नजरिया नहीं बदलने वाला।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


 

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