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भारतीयता को जीने वाली राजनेता

इंदिरा गांधी होतीं, तो कल सौ वर्ष पूरे करतीं। एक नेता के तौर पर उनकी अनूठी खासियत यह है कि हमारे दौर में वह सबसे अधिक सराही जाने वाली नेता हैं, तो उनकी आलोचनाएं भी सबसे अधिक होती रहीं। प्रशंसा और...

भारतीयता को जीने वाली राजनेता
मृदुला मुखर्जी, इतिहासकारFri, 17 Nov 2017 10:33 PM
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इंदिरा गांधी होतीं, तो कल सौ वर्ष पूरे करतीं। एक नेता के तौर पर उनकी अनूठी खासियत यह है कि हमारे दौर में वह सबसे अधिक सराही जाने वाली नेता हैं, तो उनकी आलोचनाएं भी सबसे अधिक होती रहीं। प्रशंसा और आलोचना, दोनों की ठोस वजहें हैं। मगर मेरा मानना है कि उन्हें लोगों ने खूब इसलिए पसंद किया, क्योंकि वह एक दूरदर्शी, साहसी और फैसलाकुन नेता थीं। अपने आदर्शों व सिद्धांतों के लिए खड़ी रहने वाली इंदिरा निजी नुकसान उठाकर भी सख्त फैसले लेने की हिमायती थीं। भारत को लेकर उनका नजरिया स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से प्रभावित था। मैं आज यहां उनके धर्मनिरपेक्ष नजरिये की बात करूंगी। 

असल में, आपातकाल के कोलाहल में हम हमेशा यह भूल जाते हैं कि इंदिरा गांधी ने ताउम्र सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ जंग लड़ा और 31 अक्तूबर, 1984 को वह इसी का शिकार बनीं। बंटवारे की भयावहता और महात्मा गांधी की नृशंस हत्या को करीब से महसूस करने के कारण उन्हें सांप्रदायिकता और उसके खतरों की स्पष्ट समझ थी। इसीलिए वह धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध रहीं। इसके कई उदाहरण हैं। मसलन, विभाजन के समय, जब अराजकता चरम पर थी, तो एक दिन इंदिरा ट्रेन से मसूरी से दिल्ली लौट रही थीं। उन्होंने देखा कि बाहरी दिल्ली के स्टेशन शाहदरा पर एक भीड़ दो बुजुर्ग मुस्लिमों पर हमला करने को आतुर है। अपनी जान की परवाह किए बिना इंदिरा उन्हें बचाने के लिए पहुंच गईं। इसी तरह की एक अन्य घटना में उन्होंने दंगाई भीड़ से कहा था, ‘मैं इस शख्स की जान बचाने आई हूं। मेरी जान लेने के बाद ही आप लोग इसे मार सकते हैं।’ 
   
गांधी जी इंदिरा के ऐसे आचरण से प्रभावित थे और उन्होंने उनसे दिल्ली में रिफ्यूजी कैंपों में काम करने को कहा। वहां उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों के बारे में पता चला। दिलचस्प है कि ये रिफ्यूजी कैंप ही थे, जहां बकौल इंदिरा ‘आरएसएस से उनकी अदावत शुरू हुई’।

बहरहाल, महात्मा गांधी की हत्या में शामिल होने का दाग लगने पर हिंदू कट्टरपंथी ताकतें निष्क्रिय-सी हो गईं, लेकिन 1960 के दशक की शुरुआत में उसने फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया। इन ताकतों ने 1962 में चीन से मिली हार का इस्तेमाल खुद को ‘राष्ट्रवादी’ बताने और जवाहरलाल नेहरू पर आक्रामक हमले करने के लिए किया। 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग को भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई। इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद इन ताकतों ने हिंंदू धार्मिक संगठनों से हाथ मिला लिया। इन्हें तब और खाद-पानी मिला, जब 1967 के लोकसभा व राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई और उत्तर भारत के कई राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं। तब मुस्लिमों के भारतीयकरण या राष्ट्रीयकरण की मांग उठने लगी, जिसका सीधा अर्थ था कि ये संगठन उन्हें राष्ट्र-विरोधी समझ रहे थे। मगर आत्मविश्वासी और जुझारू इंदिरा ने ऐसे संगठनों से सीधे लोहा लिया। सांप्रदायिक लहर को परे धकेलने में उन्हें मिली सफलता का आकलन इससे किया जा सकता है कि 1971 के आम चुनाव में जनसंघ को महज 22 सीटें मिलीं। 

इस जीत को ज्यादा वक्त भी नहीं बीता कि पूर्वी पाकिस्तान का संकट सामने आ गया। मुजीबुर रहमान को चुनाव में मिली जीत को पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान पचा नहीं पाया और उसने पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार और दमन की शुरुआत कर दी। इसने भारत में कट्टरपंथी ताकतों को एक और मौका दिया कि वे इसके बहाने ‘पाकिस्तान-विरोध’ का विषवमन शुरू करें। लेकिन इंदिरा गांधी ने अपनी अक्लमंदी से ऐसा होने नहीं दिया। वह विश्व जनमत बनाने में जुट गईं कि करीब एक करोड़ लोग पाकिस्तान से अलग होने के लिए नहीं, बल्कि उसके दमन से बचने के लिए पूर्वी बंगाल से भागकर भारत आए हैं। पाकिस्तान पर हमला करने का भारी दबाव होने के बावजूद इंदिरा ने संयम बनाए रखा। मगर 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने जंग का एलान कर दिया। उग्र राष्ट्रवाद को हवा दिए बिना कैसे अपने पक्ष में माहौल बनाया जाता है, यह इंदिरा गांधी के उन शब्दों से समझा जा सकता है, जो उन्होंने सेना को संबोधित करते हुए कहे थे। उनके शब्द थे- ‘इससे पहले कभी इस तरह सभी धर्मों, भाषाओं, क्षेत्रों और सियासी पार्टियों के लोग एक नहीं हुए हैं। वे दुश्मन को हराने के लिए उतने ही प्रतिबद्ध हैं, जितने कि आप... आप और हम इस महान सिद्धांत की रक्षा के लिए जंग लड़ रहे हैं कि सभी धर्मों के लोग समान रूप से हमारे भाई-बंधु हैं। हम समानता और भाईचारे के महान आदर्शों की रक्षा कर रहे हैं, जो हमारे लोकतंत्र की जीवन-शक्ति है।’

इंदिरा ने राष्ट्रवाद के मूल तत्वों के रूप में धर्मनिरपेक्षता, समानता, लोकतंत्र का आह्वान किया था और राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया। उनके अभियान की वजह से पाकिस्तान से कटकर एक अलग राष्ट्र जरूर बना, पर उन्होंने इसे हिंदू भारत द्वारा मुस्लिम पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाने की घटना नहीं बनने दिया। आज जब सीमा-रेखा पार करके की गई सैन्य कार्रवाई को एक दिलेर राष्ट्रवादी कृत्य के रूप में प्रचारित किया जाता है, तब हमें यह याद करना चाहिए कि 46 वर्ष पहले देश में एक ऐसी दिलेर और बहादुर महिला नेता थी, जिन्होंने पाकिस्तान को न सिर्फ जंग में करारी शिकस्त दी, उसके 90,000 सैनिकों को बंदी बनाया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों को कायम रखते हुए पश्चिमी सीमा में जीती गई एक-एक ईंच जमीन लौटा दी और बंदी सैनिकों को रिहा कर दिया था।
आलोचक इंदिरा गांधी को ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ के लिए निशाने पर लेते रहे हैं। मगर यह समझने की जरूरत है कि जब हालात बेकाबू हो गए, तब उन्होंने वह फैसला लिया। भिंडरांवाले को स्वर्ण मंदिर से बाहर निकालने के लिए हर मुश्किल कदम उठाने का साहसिक नजरिया इंदिरा के पास था, जबकि वह जानती थीं कि ऐसा करके वह अपनी लोकप्रियता गंवा सकती हैं और अपनी जान भी जोखिम में डाल सकती हैं। यह फैसला सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी जंग का ही एक हिस्सा था। इसकी कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई, और जैसा कि हम सब जानते हैं कि खतरे की आशंका के बावजूद उन्होंने अपने सिख अंगरक्षकों को यह कहते हुए हटाने से इनकार कर दिया कि ‘क्या हम धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं?’
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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