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आधार के तर्कों का किंतु-परंतु

ऐसे समय में, जब आधार से संबद्ध तीन मामले उस संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए विचाराधीन हैं, जिसका अभी तक गठन ही नहीं हुआ, तब यह लाजिमी है कि हम आधार से जुड़े कुछ मूलभूत सवालों पर विचार करें। इस बात...

आधार के तर्कों का किंतु-परंतु
आर सुकुमारThu, 13 Jul 2017 07:54 PM
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ऐसे समय में, जब आधार से संबद्ध तीन मामले उस संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए विचाराधीन हैं, जिसका अभी तक गठन ही नहीं हुआ, तब यह लाजिमी है कि हम आधार से जुड़े कुछ मूलभूत सवालों पर विचार करें। इस बात से इनकार करने का कोई आधार नहीं है कि इससे जुड़ी, खासतौर से निजता और सुरक्षा के बिंदु  अहम हैं। कहने का आशय यह कि जरूरत तमाम नए-पुराने आरोपों-प्रत्यारोपों से ऊपर उठकर इस मसले पर सोचने की है।

आधार को लेकर ये आरोप उछाले जाते रहे हैं कि भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानी यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया, यानी यूआईडीएआई ने अपने तत्कालीन चेयरमैन नंदन नीलेकणि की पूर्व कंपनी इंफोसिस लिमिटेड को अधिक से अधिक कॉन्ट्रेक्ट जारी किए, और एक अफवाह यह भी रही है कि इंडिया स्टैक ने आधार के बहाने एक ऐसा सिस्टम बना लिया है, जिसका फायदा सिर्फ उसे मिलेगा। इंडिया स्टैक डिजिटल पेमेंट इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए बुनियाद तैयार करने वाली एक पहल है, जिसके कर्ता-धर्ता स्वयंसेवक और लाभ की मंशा न रखने वाले लोग हैं।

यह भी समझना जरूरी है कि आधार के लिए ‘रुको और आगे बढ़ो’ की ही नीति बनाई गई है, और इसका विधायी ढांचा अब तक अधूरा है। यह सच है कि आधार की नींव यूपीए-2 सरकार ने डाली, लेकिन सरकार में विभिन्न प्रकार की असहमतियों के कारण वहइसके लिए विधायी ढांचा नहीं खड़ा कर सकी, जो आधार के खिलाफ दी जा रही दलीलों में से एक है। बाद में जब इसको लेकर एक कानून आया, तो जिस सरकार (एनडीए) ने इसे पारित किया, उसने इसे कथित तौर पर वित्त विधेयक की शक्ल दे दी। वजह यह थी कि वित्त विधेयक बनते ही इसे संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा से पास कराने की जहमत नहीं उठानी पड़ती, जहां सरकार अल्पमत में थी (और आज भी है)। संसदीय लोकतंत्र की सेहत के लिए यह बहुत अच्छा रास्ता नहीं कहा जाएगा। लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि निजता से जुड़े कानून को लेकर गंभीर विमर्श नहीं हुआ, जबकि डिजिटल होते भारत के लिए इस पर चर्चा जरूरी थी।

इसी का नतीजा है कि सर्वोच्च न्यायालय में जो तमाम मामले चल रहे हैं, उनमें से एक में आधार के आधार (तार्किकता) पर ही सवाल उठाए गए हैं, तो दूसरे में उस कानून की वैधता पर, जिसे एक वित्त विधेयक के रूप में पारित किया गया है। हालांकि इस मामले में कुछ अंतरिम आदेश भी आए हैं। यहां दो बातों पर गौर करना प्रासंगिक है। पहली यह कि सरकार ने अदालत में कभी यह नहीं कहा कि आधार अनिवार्य है। और दूसरी, अदालत ने बार-बार जोर देकर कहा है कि आधार को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता। मेरा मानना है कि यह भ्रामक स्थिति कतई सुखद नहीं है और यह भी सच है कि सरकार ने अदालत में अपने पत्ते अच्छी तरह नहीं खेले। 

जरूरत चीजों को खुली आंखों से देखने की है। मसलन, ‘आधार लीक’ का जो शोर है, वह असल में सरकारी विभागों की अक्षमता के कारण है। नियम-कायदों से इस पर रोक संभव है, मगर विभागों की इस अक्षमता के कारण आधार के ही खिलाफ माहौल गरम हो गया है। धारणा बन गई है कि आधार डाटा के मामले में सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। हालांकि सच यही है कि आधार डाटाबेस में से कोई भी बायोमीट्रिक डाटा लीक होने का मामला अब तक सामने नहीं आया है। हां, जहां कहीं भी डाटा का आदान-प्रदान होता है, वहां कुछ दुरुपयोग होने की शिकायतें आई हैं, लेकिन इसे तो कानून बनाकर रोका जा सकता है।

और अंत में, हमें अपने देश पर भी भरोसा करना होगा, क्योंकि विश्वास टूटने की ऐसी किसी भी सूरत में हमारे पास कानूनी मदद (गोपनीयता और डाटा संरक्षण कानून आदि) के तमाम रास्ते उपलब्ध हैं। हाल के दौर में एक दुर्भाग्यपूर्ण बदलाव यह भी आया है कि कुछ जटिल मसलों को भी बहुत सरलीकृत तरीके से मोदी समर्थन और मोदी विरोध जैसे तर्कों में ढाल दिया जा रहा है। आधार के संदर्भ में भी यही सच है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछली सरकार के इस आइडिया के सकारात्मक पक्ष को समझकर ही इसे आगे बढ़ाया है। इस संदर्भ से देखा जाए, तो इसका (आधार) सबसे बड़ा गुण ही आज  इसका सबसे बड़ा अवगुण बनकर खड़ा हो गया है।

तो फिर असल मुद्दे क्या हैं?
एक बड़ा मसला आधार डाटाबेस की सुरक्षा का है। डाटाबेस की सुरक्षा को लेकर न जाने कितनी रिपोर्टें लिखी जा रही हैं। लिहाजा यह स्थिति साफ होनी ही चाहिए कि यह कितना सुरक्षित है और कितना असुरक्षित?
दूसरा मुद्दा आधार डाटाबेस की विश्वसनीयता का है। प्रामाणीकरण के दौरान गड़बड़ियों के कई उदाहरण मिलते रहे हैं। ऐसी चूक आधार को चलन से बाहर कर सकती है। और नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए सरकार के पास तमाम रास्ते हैं।

तीसरा मसला, गोपनीयता कानून का न होना है।
और अंत में, देश एक बड़ी (और दार्शनिक) बहस में डूबा हुआ है कि क्या भारत और भारतीयों को आपस में जुड़े रहने के लिए किसी एक नंबर की जरूरत है? वह भी तब, जब इसके दुरुपयोग की आशंका है और इसे रोकने के लिए जरूरी ‘चेक ऐंड बैलेंस’ का सिस्टम भी नहीं है?
इन तमाम पहलुओं पर गौर कर लिया जाए और इनका समाधान दे दिया जाए, तो आगे की राह आसान हो सकती है। आधार का बेहतर और व्यापक इस्तेमाल न सिर्फ हमारे जीवन को आसान बना सकता है, बल्कि तमाम लेन-देन को भी काफी सरल कर सकता है। यह सरकारी योजनाओं को अपने वास्तविक लक्ष्यों तक पहुंचाने और अधिक प्रभावी होने में भी कारगर भूमिका निभा सकता है। साथ ही, यह उन करोड़ों भारतीयों की तमाम मुश्किलों का हल भी बन सकता है, जो विकास योजनाओं का हिस्सा बनना चाहते हैं, उनसे कटना नहीं चाहते।

(यह लेख 14 मई 2017 को प्रकाशित हुआ है)

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