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एक किसान नेता का उदार राष्ट्रवाद

आज वल्लभभाई पटेल यदि जीवित होते, तो 142 वर्ष पूरे कर चुके होते। 1950 में 15 दिसंबर, यानी आज के ही दिन वह इस दुनिया से विदा हुए थे। मगर निधन के छह दशकों के बाद भी अगर वह हमारी स्मृतियों में जिंदा हैं,...

एक किसान नेता का उदार राष्ट्रवाद
मृदुला मुखर्जी, प्रसिद्ध इतिहासकारThu, 14 Dec 2017 10:28 PM
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आज वल्लभभाई पटेल यदि जीवित होते, तो 142 वर्ष पूरे कर चुके होते। 1950 में 15 दिसंबर, यानी आज के ही दिन वह इस दुनिया से विदा हुए थे। मगर निधन के छह दशकों के बाद भी अगर वह हमारी स्मृतियों में जिंदा हैं, तो इसकी कई ठोस वजहें हैं। पटेल की सोच और उनके विचार आज भी हमारे लिए काफी मायने रखते हैं। हम बेशक उन्हें ‘लौह पुरुष’ के रूप में याद रखें, पर यह जानना भी जरूरी है कि वह एक किसान नेता थे। उनका महत्व इसमें भी छिपा है कि आखिर वह ‘सरदार’ बने कैसे?

पटेल को समझने के लिए बारडोली सत्याग्रह को जानना काफी जरूरी है। इस आंदोलन को हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और किसान आंदोलन, दोनों के इतिहास में शीर्ष स्थान मिलना चाहिए। इसी आंदोलन ने सबसे पहले देशवासियों को यह बताया था कि अहिंसा, असहयोग और नागरिक अवज्ञा का इस्तेमाल करते हुए बड़ी से बड़ी ताकत को झुकाया जा सकता है। 1928 के इस किसान आंदोलन का नेतृत्व पटेल ने ही किया था। अंग्रेज हुकूमत ने जब भू-राजस्व बढ़ाने की घोषणा की, तो विरोध स्वरूप पटेल की अगुवाई में किसानों ने यह आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन के दो पहलू थे। पहला, भू-राजस्व नहीं चुकाया जाएगा, भले इसकी जो भी कीमत चुकानी पडे़ और दूसरा, अंग्रेजों और ब्रिटिश सरकार के हितैषियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। गुजरात के सूरत जिले का बारडोली तालुका हिन्दुस्तान के नक्शे का भले ही बहुत छोटा हिस्सा रहा हो, पर इस आंदोलन की आग काफी तेजी से भड़की। बारडोली सत्याग्रह कई महीनों तक चला और आखिरकार ब्रिटिश सरकार को नाक रगड़नी पड़ी। अच्छी बात यह रही कि इस आंदोलन को देश भर में समर्थन मिला। 

बारडोली सत्याग्रह की सफलता का पूरा श्रेय पटेल को जाता है। उन्हें आंदोलन को गांधीजी का दिशा-निर्देश जरूर मिलता रहा, मगर जमीनी स्तर पर सभी काम पटेल ने ही किए। कल्पना कीजिए कि उन्होंने तब ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ दी थी, जब कहा जाता था कि आधी दुनिया पर ब्रितानियों का राज चलता है। इसी आंदोलन में बारडोली की महिलाओं ने उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी, और उन्हें अपना मुखिया चुना। इस आंदोलन की सफलता से देश भर में यह संदेश भी गया कि अगर एक तालुका के किसान इतनी बड़ी हुकूमत को घुटनों पर गिरा सकते हैं, तो वे सब एकजुट होकर क्या नहीं कर सकते? 

मुझे लगता है कि इस संदेश को आज भी जीवन में उतारने की जरूरत है। आज किसानों की हालत काफी दयनीय है। देश के हर कोने में किसान आंदोलन चल रहे हैं। अभी हाल ही में दिल्ली में कई किसान संगठनों ने मिलकर प्रदर्शन किया। महाराष्ट्र में विरोध-प्रदर्शन चल रहा है। जगह-जगह से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। साफ दिख रहा है कि अन्नदाताओं की हालत देश में काफी खराब है। बेहतर होता कि पटेल की सोच को जीते हुए ये किसान एकजुट होकर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करते? इसका परिणाम सुखद निकल सकता है। 

पटेल ने इसके अलावा भी किसानों के लिए काफी कुछ किया। भूमि सुधार को लेकर उन्होंने देश भर में अलख जगाई। वह स्पष्ट मानते थे कि जो खेत जोतता है, जमीन उसी की होनी चाहिए। उन दिनों गुजरात में एक प्रथा थी, जिसमें दलित कामगार को कृषि-कार्य में बंधुआ मजदूर माना जाता था। पटेल ने इस प्रथा पर रोक लगाई। यह सब वाकया हिन्दुस्तान की आजादी से पहले का है। इसके कारण पूरे देश में पटेल की ख्याति बढ़ी और वह प्रथम श्रेणी के नेता के तौर पर गिने जाने लगे। उन्होंने       कांग्रेस पार्टी को बनाने में भी काफी योगदान दिया। वह जानते थे कि जमीनी स्तर पर किस तरह एक आंदोलन को खड़ा किया जा सकता है। बारडोली का अनुभव उनके काफी काम आया।

पटेल को उनकी सांप्रदायकिता विरोधी सोच की वजह से भी आज याद किया जाना चाहिए। मुश्किल यह है कि उनके बारे में अब तमाम तरह की भ्रामक जानकारियां परोसी जाने लगी हैं। उन्हें ‘उदार हिंदुत्व’ नेता के सांचे में फिट किया जाता है। मगर हमारे पास ऐसे बहुत सारे दस्तावेज हैं, उनकी चिट्ठियां हैं, भाषण हैं, जो यह साबित करते हैं कि पटेल सांप्रदायिकता के घनघोर विरोधी थे। वह गांधी में पूरी आस्था रखते थे, और हम जानते हैं कि सांप्रदायिकता के खिलाफ बापू से ज्यादा कोई दूसरा मुखर नहीं हो सकता। गृह मंत्री के रूप में भी पटेल की भूमिका छिपी नहीं है। 1948 में जब गांधीजी की हत्या हुई, तब गृह मंत्रालय की कमान उन्हीं के हाथों में थी। उन्होंने न सिर्फ इस घटना की जांच करवाई, बल्कि कार्रवाई भी की। 30 जनवरी, 1948 को बापू को गोलियां मारी गई थीं और इसके पांच दिनों के बाद ही 4 फरवरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। आरएसएस पर यह प्रतिबंध करीब डेढ़ साल तक रहा और उसके लिखित तौर पर यह बताने के बाद कि वह सांस्कृतिक संगठन ही रहेगा, उससे प्रतिबंध हटाया गया। तब भी पटेल ही गृह मंत्री थे।

पटेल हर तरह की सांप्रदायिकता के खिलाफ थे; फिर चाहे वह हिंदू महासभा द्वारा फैलाई जा रही हो अथवा मुस्लिम लीग द्वारा। इसे लेकर वह एक स्पष्ट सोच रखते थे। मगर अब होता यह है कि वक्त-बेवक्त मुस्लिम कट्टरवाद के खिलाफ उनके शब्दों को संदर्भ से काटकर परोसने की कोशिश की जाती है और यह स्थापित करने का प्रयास किया जाता है कि वह मुसलमानों के खिलाफ थे। जबकि हकीकत में वह ताउम्र हिंदू और मुस्लिम, दोनों के अतिवाद के खिलाफ खड़े रहे। यह हो ही नहीं सकता कि धर्मनिरपेक्षता में उनका विश्वास न हो। आखिर उनके सबसे प्रिय इंसान (महात्मा गांधी) को सांप्रदायिकता ने ही उनसे छीना था, और वह भी उनके सामने। फिर भला वह क्योंकर सांप्रदायिकता का पोषण करते?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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