फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन ताजा ओपिनियनदक्षिण के खेतों से उठती आवाज

दक्षिण के खेतों से उठती आवाज

दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों को एक बड़ी जीत नसीब हुई है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पर मजबूर कर दिया है। आम धारणा यही थी कि यह मसला दो राज्यों,...

दक्षिण के खेतों से उठती आवाज
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 22 Nov 2021 09:12 PM
ऐप पर पढ़ें

दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों को एक बड़ी जीत नसीब हुई है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पर मजबूर कर दिया है। आम धारणा यही थी कि यह मसला दो राज्यों, हरियाणा और पंजाब तक ही सीमित है, क्योंकि इन क्षेत्रों के ही प्रभावशाली किसान आंदोलन कर रहे थे। मगर याददाश्त कमजोर होने के कारण कई लोग यह समझने में विफल रहे कि वर्षों से देश के कई हिस्सों में कृषि संकट पर लगातार मंथन हो रहा है। कई समीक्षक भी इस तथ्य से अनजान हैं कि खेती-किसानी अब लाभदायक पेशा नहीं रही और इसमें लागत इतनी अधिक बढ़ गई है कि किसान अपने बूते साल-दर-साल उत्पादन बनाए रखने में सक्षम नहीं हो पा रहे।
सच यही है कि कृषि संकट के संकेत सिर्फ पंजाब और हरियाणा से नहीं आ रहे, बल्कि दक्षिण के कर्नाटक, अविभाजित आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम में महाराष्ट्र जैसे सूबों में काफी पहले से मिल रहे हैं। इन इलाकों के किसान अपनी समस्याओं को अलग-अलग तरीकों से जाहिर भी करते रहे हैं, जिसकी सुध दिल्ली प्रशासन ने नहीं ली है। भला हो उत्तर प्रदेश चुनाव का, जिसकी आहट में प्रधानमंत्री ने कृषि कानून वापस लिए।
सन् 2010 से 2012 के बीच, अविभाजित आंध्र प्रदेश (उस समय वहां कांग्रेस की सरकार थी) सबसे अधिक आत्महत्या दर के साथ गंभीर कृषि संकट का गवाह बना था। इस अवधि के दौरान प्रति 1,000 की जनसंख्या पर 47 अन्नदाताओं ने खुदकुशी की थी, जबकि उस समय राष्ट्रीय औसत 15 था। तेलंगाना आंदोलन ने जोर पकड़ा और इसके नेता के चंद्रशेखर राव ने अपनी बात मनवाने के लिए हरे रंग का दुपट्टा थाम लिया। आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद जब वह 2014 में सत्ता में आए, तब किसानों के मसलों पर उन्होंने खास संजीदगी दिखाई। वह किसानों के लगभग सभी वर्गों को कर्जमाफी, जमीन पर मालिकाना हक, सिंचाई सुविधाएं, कृषि निवेश आदि के रूप में रियायतें देते रहे हैं। पिछले हफ्ते, प्रधानमंत्री द्वारा गुरु पर्व पर की गई घोषणा से एक दिन पहले वह मुख्यमंत्री होने के बावजूद, केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ हैदराबाद में (सत्ता में आने के बाद पहली बार) हड़ताल पर बैठे। हालांकि, इसका एक कारण राज्य में भाजपा का बढ़ता प्रभाव भी था।
वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले कर्नाटक को भी अभूतपूर्व सूखे का सामना करना पड़ा था। तब यह बताया गया था कि 2012 और 2017 के दरम्यान 3,500 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। राजस्थान के बाद यहीं देश के दूसरा सबसे बड़ा शुष्क क्षेत्र है, और इसके बुनियादी ढांचे को निश्चय ही बेहतर बनाने की दरकार है। चूंकि यहां की राजनीति पर जातिगत और धार्मिक मसलों का कब्जा है, इसलिए सियासी बहसों में कृषि संकट को पूरी तरह से भुला दिया गया है।
महाराष्ट्र में मार्च, 2018 में लगभग 60,000 किसानों ने कृषि संकट के खिलाफ विधानसभा घेरने के लिए नासिक से मुंबई तक मार्च किया था। बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और कीटों के हमलों ने उनके खेतों को नुकसान पहुंचाया था। हालांकि, राज्य किसानों को बहुत कुछ दिए बिना यह आंदोलन समाप्त कराने में  सफल रहा।
अन्नदाताओं का सबसे मुखर विरोध तमिलनाडु में दिखा, जब 2017 में 72 वर्षीय अय्याकन्नू के नेतृत्व में किसानों ने आंदोलन किया। उन्होंने सरकारी बैंकों से कर्जमाफी की मांग की थी। दिल्ली के जंतर-मंतर पर लंबे समय तक चले आंदोलन ने देश भर के किसानों की दुर्दशा उजागर की थी, लेकिन केंद्र सरकार को मनाने में आंदोलन विफल रहा। तमिलनाडु के किसानों ने विरोध के कई नए तरीके पेश किए थे। इनमें कुछ तरीके अतिवादी ही सही, लेकिन बहुत प्रभावी थे। प्रदर्शनकारियों ने, जिनमें महिलाएं भी थीं, सांप कढ़ी खाते, मरे हुए चूहों को दांतों से दबाते, सड़कों पर लोटते, अपनी कलाई काटते, सिर के बल खड़े होते, सड़क पर चावल खाते, अपने सिर मुंड़वाते, तो कभी आधी दाढ़ी बनाते, एक दिन पुरुषों ने नवविवाहित महिलाओं के कपड़े पहने और अगले दिन मंगलसूत्र काटा, उन्होंने मानव खोपड़ी के साथ प्रदर्शन किया और एक दिन, जब प्रधानमंत्री ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया, तब नग्न प्रदर्शन किया था। 
तमिलनाडु सरकार ने 5,780 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए और केंद्र से राहत के रूप में 40,000 करोड़ रुपये मांगे, क्योंकि राज्य 140 वर्षों में सबसे खराब वर्षा के दौर से गुजर रहा था। किसानों ने साल-दर-साल अभूतपूर्व सूखे और चक्रवात के कारण फसलों का नुकसान झेला था। केंद्र सरकार ने 2,000 करोड़ रुपये भिजवाए और राज्य सरकार ने माना कि एक महीने के अंदर कृषि संकट के कारण करीब 100 किसान जान गंवा चुके हैं। 
ऐसा नहीं है कि किसानों की समस्याओं से हम अनजान हैं। यह एक खुला रहस्य है कि 60 प्रतिशत भारतीय खेती-किसानी से ही अपना जीवन बसर कर रहे हैं, लेकिन जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 18 फीसदी से भी कम है। साल-दर-साल केंद्र और राज्य सरकारें इस पर अपना बजटीय आवंटन घटाती जा रही हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान के अनुमान भी इसकी तस्दीक कर रहे हैं। दूसरी ओर, राज्यों में कृषि ऋण बढ़ता जा रहा है। महामारी के पहले के दशक में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह 80 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गया था। जैसे-जैसे सरकार ने पूंजी बढ़ाई, करीब 60 प्रतिशत किसान औपचारिक कर्ज से बाहर आ गए।
कृषि संकट का विस्तार स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों तक हो जाता है। इसके अलावा, किसानों की मौत गहरी सामाजिक दरार का कारण बनती है। बैंक भी खुद को मंझधार में फंसा पाते हैं, क्योंकि रकम को बट्टे खाते में डालने से उनका एनपीए बढ़ जाता है। बिना किसी जवाबदेही के कॉरपोरेट कर्ज को माफ करने और किसानों की अनदेखी की सरकार की प्रवृत्ति पर प्रदर्शनकारी सवाल उठाते ही रहे हैं।
साफ है, मौजूदा किसान आंदोलन कई राज्यों में इसलिए नहीं फैला, क्योंकि या तो संबंधित राज्य सरकार आग लगने से पहले उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ी या उन जगहों पर कृषि अर्थव्यवस्था की संरचना ऐसी थी कि वहां केंद्र की खरीद पर ही सब कुछ निर्भर नहीं था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें