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एशिया का रुतबा लौटाते भारत-चीन

पश्चिमी विचारकों का मानना है कि उभरती हुई ताकतें प्रतिस्पद्र्धा करती ही हैं। और, जब वे पड़ोसी होती हैं, तब तो उनमें शत्रुता की आशंका भी कहीं अधिक होती है। पिछले करीब डेढ़ सौ वर्षों से भारत व उससे...

एशिया का रुतबा लौटाते भारत-चीन
Pankaj Tomarजोरावर दौलत सिंह, विदेशी मामलों के विशेषज्ञThu, 06 Jul 2023 10:52 PM
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पश्चिमी विचारकों का मानना है कि उभरती हुई ताकतें प्रतिस्पद्र्धा करती ही हैं। और, जब वे पड़ोसी होती हैं, तब तो उनमें शत्रुता की आशंका भी कहीं अधिक होती है। पिछले करीब डेढ़ सौ वर्षों से भारत व उससे पहले के ब्रिटिश भारत और चीन व उससे पहले के छिंग चीन ने पश्चिमी विचारकों को सही साबित किया है। देखा जाए, तो भारत-चीन संबंधों के इतिहास को भू-राजनीतिक कटुता का एक लंबा युग कहा जा सकता है, जिसमें सिर्फ आपसी तालमेल और क्षणिक मौकों पर ही सुलह दिखी।
इस लिहाज से 2020 का अंतहीन सीमा-विवाद इस गाथा का एक और अध्याय है। 2010 का दशक हिमालयी सीमा पर बढ़ते तनाव व सैन्य अस्थिरता के नाम था, जिसका नतीजा जून 2020 में हिंसक झड़प के रूप में सामने आया। तब से आपसी रिश्तों पर जमी बर्फ धीरे-धीरे पिघली जरूर है, मगर इतनी गरमी नहीं आई है कि सार्थक बातचीत हो या द्विपक्षीय संबंधों में गरमाहट आ सके। फिलहाल जिस बात पर दोनों देश सहमत हैं, वह यह है कि सैन्य तनाव बढ़ना किसी के हित में नहीं है, इसलिए इससे बचा जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर या तीसरे देश में आपसी विवादों पर बयान देना भी अब बंद कर दिया है।
नई दिल्ली के लिए शांतिपूर्ण और स्थिर सीमा का मसला हमेशा से चीन के साथ टिकाऊ संबंधों के केंद्र में रहा है। वहीं चीन के लिए, सीमा एक अहम मसला जरूर है, लेकिन एक बड़े फलक के छोटे से हिस्से के रूप में। चूंकि बातचीत के अंतनिर्हित मसलों पर वे पूरी तरह सहमत होने को तैयार नहीं हैं, इसलिए गतिरोध खत्म करने के लिए कूटनीति ज्यादा अहम हो गई है।
आश्चर्य की बात यह है कि दोनों पक्ष इस गतिरोध को- जिसे कुछ लोग ‘न्यू नॉर्मल’ बताते हैं- द्विपक्षीय जटिल रिश्ते को संभालने और इसे अपने हित में करने का आसान तरीका मानते हैं। भारत संबंधों में गरमाहट लाकर अमेरिका को अपने पक्ष में करने में सफल रहा है, जिसका अघोषित आधार एशिया में शक्ति-संतुलन है। नई दिल्ली को भरोसा है कि चीन-समस्या को देखते हुए अमेरिका भारत के उत्थान और उसके घरेलू सुधार में रुचि बनाए रखेगा, और इसके लिए भारत को किसी अमेरिकी सैन्य अभियान या नीति में शामिल भी नहीं होना पड़ेगा। चीन के लिए भी भारत का मोर्चा, जो लद्दाख संकट के बाद अपेक्षाकृत शांत है, बीजिंग को अपने जरूरी घरेलू व विदेशी मसलों पर अधिक ध्यान लगाने में बाधक नहीं बन रहा है।
मगर जिस चीज ने वास्तव में भारत और चीन के नेतृत्व को अपनी प्राथमिकताएं बदलने को बाध्य किया है, वह है अमेरिका और उसके मुख्य विरोधियों- रूस व चीन के बीच बड़ी ताकत बनने को लेकर शुरू हुआ टकराव। अमेरिका-चीन और अमेरिका-रूस संबंधों ने भारत-चीन रिश्तों का अर्थ बदल दिया है। चीन पूर्वी हिस्से में भू-राजनीतिक टकराव को थामने में व्यस्त है, और अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को पूरी तरह टूटने से बचाने के लिए वाशिंगटन के साथ एक नया, भले कमजोर ही सही, संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है। भारत भी यूक्रेन युद्ध के बाद बहुध्रुवीयता के उभार में नए अवसरों की खोज के साथ-साथ घरेलू स्थिरता और विकास को तवज्जो दे रहा है।
इसी का नतीजा है कि भारत-चीन सवाल, विश्व-व्यवस्था की बड़ी शक्तियों के बीच काफी अहम बन गया है। विडंबना यह है कि भारत और चीन अपने खराब आपसी संबंधों के बावजूद कई बहुपक्षीय मंचों और संस्थाओं में समान विचार को आगे बढ़ाते देखे जा रहे हैं। इसकी वजह स्पष्ट है- भारत बेशक चीन की बढ़ती ताकत से सावधान है, लेकिन वह एकध्रुवीय व्यवस्था के बाद की दुनिया को आकार देने में भी विश्वास करता है। यह गैर-पश्चिमी देशों की आवाज और उनके कद को बढ़ाने में मददगार है, जो वैश्विक संस्थाओं में हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। इसने भारत व चीन को साथ आने को प्रेरित किया है, ताकि अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के साथ-साथ वे पश्चिम के नेतृत्व वाले संस्थानों व नियमों का दुरुपयोग रोक सकें।
एक समावेशी वित्तीय, निवेश व व्यापार ढांचा बनाने के प्रति पश्चिमी देश बीते कई वर्षों से अनिच्छा दिखाते रहे हैं। यही नहीं, एक आरक्षित मुद्रा, ब्रेटन वुड संस्थान, पूर्वानुमानित ऊर्जा आपूर्ति शृंखला और कॉमोडिटी एक्सचेंज आदि को बेशक अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले वैश्विक उत्पाद के रूप में भारत व चीन के नव-उदारवादी नीति-निर्माताओं ने स्वीकार किया था, पर वे यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी हितों की पूर्ति करने के भू-राजनीतिक औजार बना दिए गए हैं।
भारत और चीन के दूरदर्शी रणनीतिकारों ने  2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान ही वैकल्पिक ढांचे और संस्थानों को महत्व देना शुरू कर दिया था। इसका फल अब धीरे-धीरे मिलने लगा है। ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों को साथ-साथ नकारना, वैश्विक दक्षिण को फायदा पहुंचाने की खातिर विकास व बहुपक्षीय मानदंडों के लिए नए विचारों का समर्थन, पश्चिमी-प्रभुत्व से इतर व्यवस्था वाली दुनिया के लिए एक मानक के रूप में बहु-सभ्यतावादी विश्व का समर्थन करना आदि ऐसे कई उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत और चीन बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।
यह साझेदारी कई मायनों में उस पुरानी व्यवस्था की वापसी है, जो कभी आपस में जुड़ी हुई थी और एशिया के यूरोपीय उपनिवेश बनने के दौरान टूट गई और फिर शीत युद्ध के दौरान अधिक खंडित होती गई। ब्रिक्स व शंघाई सहयोग संगठन वास्तव में विकास के लिए समावेशी माहौल की तलाश करने वाले देशों के बढ़ते बहु-सभ्यतागत बहु-सांस्कृतिक नेटवर्क का प्रतीक है। चूंकि पश्चिम ने किनारा कर लिया है, इसलिए भारत और चीन ने वैश्विक-व्यवस्था को स्थिर करने वाली भूमिका अपना ली है। शायद इसी का उदाहरण है कि भारत ने रूसी तेल आयात का भुगतान युआन में करने का फैसला लिया है, जो अमेरिका द्वारा एक हथियार के रूप में वैश्विक आर्थिक तंत्र के इस्तेमाल करने वाले दौर में अकल्पनीय माना जाता था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)