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इतनी जल्दी पीछे नहीं हटेंगे पवार

आज शरद पवार को उनकी बायोग्राफी के शीर्षक के साथ जोड़कर ही समझना होगा, शीर्षक है - अपनी शर्तों पर, बिना इस शीर्षक के उन्हें नहीं समझा जा सकता। इसे समझे बिना ज्यादातर लोग शरद पवार को कभी बागी, कभी...

इतनी जल्दी पीछे नहीं हटेंगे पवार
Pankaj Tomarविजय त्रिवेदी, वरिष्ठ पत्रकारTue, 02 May 2023 10:57 PM
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आज शरद पवार को उनकी बायोग्राफी के शीर्षक के साथ जोड़कर ही समझना होगा, शीर्षक है - अपनी शर्तों पर, बिना इस शीर्षक के उन्हें नहीं समझा जा सकता। इसे समझे बिना ज्यादातर लोग शरद पवार को कभी बागी, कभी खलनायक, तो कभी राजनीतिक लोभी के रूप मे देखते रहे हैं। ज्यादातर लोगों को लगता रहा है कि शरद पवार हमेशा सत्ता की राजनीति करते रहे हैं। साठ साल के राजनीतिक करियर में शरद पवार सत्ता में रहे हों या विपक्ष में, पार्टी तोड़ने वालों में रहे हों या बनाने वालों में, केंद्र की राजनीति में रहे हों या महाराष्ट्र की राजनीति में, उन्होंने जो भी किया है, अपनी शर्तों पर किया है। अब अगर वह अपनी पार्टी का अध्यक्ष पद भी अपनी शर्तों पर छोड़ने जा रहे हैं, तो आश्चर्य नहीं। 1956 में गोवा की आजादी के लिए प्रदर्शन के साथ शुरू हुआ उनका राजनीतिक सफर क्या अब ढलान पर पहुंच गया है? क्या उनकी पार्टी उन्हें जाने देगी? विश्वास करना मुश्किल है। 
यह बात छिपी नहीं है कि शरद पवार न केवल राजनीतिक जीवन में, बल्कि निजी जीवन में भी लड़ाकू रहे हैं। लोगों को लगता है कि वह जा रहे हैं, लेकिन वह हर बार मजबूती के साथ पलटकर आते हैं। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में पुणे में चुनाव प्रचार करने के बाद उन्हें आपातकालीन ऑपरेशन के लिए सीधे अस्पताल जाना था, भाषण खत्म करते ही वह ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती हुए थे। उस ऑपरेशन के बाद के 20 साल में हर उस आदमी को पवार ने निराश किया है, जिसे कभी भी यह लगा कि अब पवार की पारी खत्म हो जाएगी। 
आज सवाल यह है कि शरद पवार ने अपनी पार्टी एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का फैसला क्यों किया? बहुत से लोग इसे विपक्षी एकता पर खतरा समझते हैं। बहुत से लोग इसे पवार के राजनीतिक सफर पर विराम समझते हैं, पर लगता नहीं है कि ऐसा कुछ होने वाला है। यह शायद एक और दांव है उनके लंबे सियासी सफर में। उनके इस फैसले को एनसीपी की उत्तराधिकार प्रक्रिया के तहत भी देखा जा रहा है। इसे अपनी सियासी ताकत को और मजबूती से रखने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है। 
यह बात नई नहीं है कि उनके भतीजे अजीत पवार काफी समय से बगावती सुर दिखाते रहे हैं। एक बार उन्होंने भाजपा के देवेंद्र फडणवीस के साथ मिलकर सरकार भी बना ली थी, लेकिन उन्हें उल्टे पांव लौटना पड़ा। शरद पवार ने उन्हें न केवल माफ किया, बल्कि महाविकास आघाडी सरकार में उप-मुख्यमंत्री भी बनवाया। अब भी उनके भाजपा के साथ जाकर सरकार बनाने की चर्चा चल रही है। ऐसे में, पार्टी को टूटने से बचाने के लिए शरद पवार का यह कदम महत्वपूर्ण हो सकता है। शरद पवार अपनी पार्टी की बागडोर अपनी बेटी सुप्रिया सुले को सौंपना चाहते हैं और इस दिशा में उनका यह कदम कारगर साबित हो सकता है। ध्यान रहे, पवार ने अपनी लोकसभा सीट बारामती पहले ही सुप्रिया सुले को सौंप दी है। बहरहाल, मंगलवार की घटना ने इतना तो संकेत दे ही दिया है कि एनसीपी में आंतरिक हलचल तेज है।
इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि एनसीपी टूट सकती है। यदि ऐसा होता है, तब भी शरद पवार और सुप्रिया सुले जिस पार्टी या धड़े के साथ होंगे, उसे ही राजनीतिक तौर पर मूल एनसीपी माना जाएगा। ऐसा ही शिव सेना के साथ भी हुआ है। शिव सेना टूटने के बाद एकनाथ शिंदे राज्य में सरकार बना चुके हैं, लेकिन ज्यादातर लोग उद्धव ठाकरे की शिव सेना को ही असली मानते हैं। 
एक और सवाल शरद पवार के राजनीतिक चरित्र को लेकर है कि क्या वह भाजपा के साथ जा सकते हैं? पिछले साठ साल के राजनीतिक सफर में कई मौके आए, उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया, नई पार्टी बनाई, लेकिन फिर कांग्रेस में या कांग्रेस के करीब आ गए। आज तक एक भी मौका ऐसा नहीं है, जब शरद पवार ने भाजपा का खुलकर साथ दिया हो। शरद पवार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के चेयरमैन व अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कौंसिल के अध्यक्ष रह चुके हैं, वह क्रिकेट के गुर का इस्तेमाल राजनीति में बेहतर ढंग से करते आए हैं। कब गुगली फेंकी जानी चाहिए और कब छक्के का लालच देकर कैच कराया जाना चाहिए, उन्हें अच्छे से पता है। वह सियासी क्रिकेट के ऐसे माहिर खिलाड़ी हैं, जो सुनील गावस्कर के धीमे टेस्ट खेल से लेकर विराट कोहली की तेज टी-20 पारी तक मैदान में टिके रह सकते हैं। 
अब इसमें कोई शक नहीं कि एनसीपी के मौजूदा घटनाक्रम का एक बड़ा चेहरा अजीत पवार हैं। वह खुद को भले बड़ा नेता समझें, लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शरद पवार की ही पार्टी है। अजीत पवार को हर पल इस बात का डर लगा रहता है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून के मुताबिक, इस बार भी फैसला कहीं शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के हक में न चला जाए। वैसे पार्टी तोड़ने की कोशिश में एक बार वह नाकाम हो चुके हैं, अब वैसी ही दूसरी कोशिश के लिए उन्हें भाजपा के सहारे की जरूरत है। भाजपा यदि शिव सेना के बाद एनसीपी को भी तोड़ना चाहेगी, तो अजीत पवार बेहतर मोहरा हो सकते हैं, पर तब वह एनसीपी नेता नहीं रह पाएंगे। यानी शिव सेना के टूटने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में एक और घमासान बाकी है। 
मंगलवार को भी घमासान का ही मौका था, जब शरद पवार अपनी राजनीतिक बायोग्राफी लोक मांझे सांगाती (अपनी शर्तों पर) का दूसरा भाग रिलीज कर रहे थे। इस मौके पर शरद पवार अपनी पत्नी और बेटी के साथ मौजूद थे। पार्टी के सभी नेताओं ने उनके प्रति अपनी आस्था जाहिर की और उनसे अध्यक्ष पद पर बने रहने का आग्रह किया। तब सुप्रिया सुले मौन रहीं, क्योंकि वह जानती हैं कि पवार के समर्थन के लिए चुप्पी तोड़ना जरूरी नहीं है। हां, अगर वह भी बोलतीं, तो शायद पार्टी टूटने की राह पर तेजी से चल पड़ती। वैसे भी कहा गया है कि सबसे भली- चुप्पी। सुप्रिया सुले अच्छी तरह समझती हैं कि पार्टी भले राजनीतिक हो, पर पूंजी तो उनके पिताजी की है, सो उन्हें ही मिलनी है। जो हुआ है, वह कतई चौंकाता नहीं है। ध्यान रहे, बीते 17 अप्रैल को ही सुप्रिया ने कह दिया था कि देश की राजनीति में दो धमाके होने वाले हैं, जिसमें से एक मंगलवार, 2 मई को हो गया, अब दूसरे का इंतजार है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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