शहबाज की शराफत के आसरे नवाज
पाकिस्तानी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले काफी दिनों से इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे और अंत में वह समय आ ही गया, जब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इस्तीफा देना पड़ा। यह मानना कि ऐसा सिर्फ पाकिस्तानी सुप्रीम...
पाकिस्तानी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले काफी दिनों से इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे और अंत में वह समय आ ही गया, जब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इस्तीफा देना पड़ा। यह मानना कि ऐसा सिर्फ पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट की अन्यायपूर्ण और असाधारण सक्रियता के कारण हुआ है, केवल अद्र्ध-सत्य है। पूरा सच जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। पांच साल पहले भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अपना पद छोड़ना पड़ा था। तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से खार खाए चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी ने यह न्यायिक हत्या की थी। दोनों फैसलों में कुछ अद्भुत समानताएं हैं। गिलानी प्रकरण की ही भांति इस बार भी जिनके खिलाफ फैसला आया, उनके विरोधियों को भी इन्हें न्यायसंगत मानने में कठिनाई हो रही है। मानवाधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की पूर्व अध्यक्षा आसमा जहांगीर मानती हैं कि यह फैसला आने वाले वक्त में भी अदालत की बदनामी का कारण बनेगा। डॉन अखबार के कॉलम्निस्ट सिरिल अल्मीड़ा के अनुसार, फैसला बड़ी बेशर्मी से तर्क की तलाश में है। दोनों फैसलों के पीछे फौज का छिपा हाथ तलाशा जा सकता है।
पहले फैसले के दौरान तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल कियानी और आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल पाशा की राष्ट्रपति जरदारी से खुले आम लाग-डांट चल रही थी। बावजूद इसके कि नवाज शरीफ ने इस कार्यकाल में अपनी पसंद के दो सेनाध्यक्षों की नियुक्ति की थी, नागरिक और सैन्य नेतृत्व के रिश्ते सामान्य नहीं रहे। सेना ने कभी भी देश की चुनी हुई सरकार की विदेश और रक्षा मामलों में चलने नहीं दी। खासतौर से भारत, अफगानिस्तान या कश्मीर पर सेना के पास हमेशा वीटो रहा। यह कोई छिपा राज नहीं है कि पाकिस्तान में न्यायपालिका आज तक सेना की असांविधानिक हरकतों में बाधा नहीं बन पाई। हर फौजी तख्ता पलट को सुप्रीम कोर्ट से ही वैधता प्राप्त हुई है। हाल में एक मुकदमे में जब यह साबित भी हो गया कि आईएसआई ने एक चुनाव में नतीजों को प्रभावित करने के लिए बड़े पैमाने पर राजनीतिक दलों को पैसा दिया, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया। इस फैसले के बाद भी जब भगोड़े जनरल परवेज मुशर्रफ ने सुप्रीम कोर्ट की निर्भीकता और निष्पक्षता को लेकर ट्वीट किया, तो जवाब में बड़ी रोचक टिप्पणियां आईं। लोगों ने पूछा कि यह बहादुरी तब कहां चली गई थी, जब पूरी न्यायपालिका को ठेंगा दिखाते हुए मुशर्रफ दुबई चले गए और आज तक अदालतें मुकदमों में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित नही करा पा रही हैं?
इस बार न्यायिक तख्ता पलट और नवाज को अयोग्य घोषित करने के लिए अनुच्छेद 62 और 63 का सहारा लिया गया है, जिन्हें 1985 में जनरल जिया उल हक के शासन-काल में देश के इस्लामीकरण की प्रक्रिया के दौरान आठवें संशोधन के रूप में पाकिस्तानी संविधान का अंग बनाया गया था। इन अनुच्छेद में जन प्रतिनिधियों के लिए सादिक और अमीन होने की शर्त लगाई गई है। पाकिस्तानी समाज में एक मजेदार लतीफा प्रचलित है, जिसके अनुसार पैगंबर मोहम्मद के अलावा कोई सांसारिक प्राणी उन मिथकीय आर्थिक, सामाजिक और नैतिक कसौटियों पर खरा नहीं उतर सकता, जो सादिक और अमीन बनने के लिए जरूरी हैं। सबसे रोचक तो यह है कि जब पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियों ने एक मत से 2010 में 18वें संशोधन के जरिये इस 8वें संशोधन को समाप्त करने का फैसला किया, तब नवाज शरीफ की जिद पर ही इन दोनों अनुच्छेद को रहने दिया गया। अब फैसले के बाद नवाज तल्ख अंदाज में पूछते घूम रहे हैं कि क्या पाकिस्तान भर में उनका ही परिवार सादिक और अमीन नहीं है। सवाल जायज भी है। अगर उनके परिवार पर लागू कसौटियों पर तौला जाए, तो कोई जज, जरनल या राजनीतिक अपने पद पर नहीं रह पाएगा।
सवाल उठता है कि अब शरीफ के बाद कौन? शून्य में कुछ नहीं घटता, यह मानते हुए इस सवाल का जवाब दक्षिण एशिया और पाकिस्तान की विशिष्ट मानसिक बुनावट में तलाशना होगा। दक्षिण एशिया की परंपरा के अनुसार नवाज ने अपने भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है और 45 दिनों के एक कार्यवाहक प्रधानमंत्री के बाद पूरी संभावना है कि वे 16वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ-ग्रहण कर लेंगे। अब पंजाब का क्या बनेगा? स्वाभाविक है कि शरीफ परिवार देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत और अपनी सत्ता के स्रोत को भी किसी दूसरे को नहीं सौंप सकता। नवाज के तीनों बच्चे भी इसी फैसले के मुताबिक अयोग्य हो गए हैं। ऐसे में शहबाज के बेटे हमजा शरीफ की ताजपोशी तय है। पर दक्षिण एशिया की इस परंपरा में एक पेच है। कोई पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि शहबाज अगले कुछ महीनों में बड़े भाई के खिलाफ दायर सभी मामलों को समाप्त करा कर वापस सत्ता उन्हें सौंप देंगे। निश्चित है कि अगले साल होने वाले आम चुनावों में वे नवाज शरीफ की लोकप्रियता को भुनाएंगे और सारे सर्वेक्षणों के मुताबिक मुस्लिम लीग (नवाज) ही फिर सत्ता में आएगी। पर क्या तब तक शहबाज के मन में तख्त पर बने रहने की चाहत नहीं पैदा हो जाएगी?
पूरे घटनाक्रम में फौज का किरदार बहुत महत्वपूर्ण है। नया प्रधानमंत्री कितना सफल होगा, यह उसके और फौज के रिश्तों से तय होगा। शहबाज बड़े भाई नवाज की तुलना में ज्यादा लचीले हैं। पहले भी जब संतुलन गड़बड़ाता था, तो वही बीच-बचाव करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका यह गुण मदद करेगा, पर क्या वे फौज के सभी अंगों को संतुष्ट कर पाएंगे? खासतौर से भारत को लेकर वे भी नवाज की तरह संबंध सामान्य करने के हामी हैं और यह एक ऐसा नाजुक मसला है, जिस पर कभी भी फौज ने भाइयों को माफ नहीं किया। सभी जानते हैं कि नवाज राजनीति में पूरी तरह से सेना की निर्मिति थे और दोनों के संबंधों में खटास तभी आनी शुरू हुई, जब उन्होंने स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने की कोशिश की। इस बीच सेना ने इमरान खान के रूप में एक नया मोहरा बिसात पर उतार दिया है। इमरान के खिलाफ भी नवाज जैसे ही मामले अदालतों में लंबित हैं और यदि न्यायपालिका ने समान पैमाने अपनाए और सेना ने उसे मजबूर नहीं किया, तो वे भी अयोग्य घोषित हो सकते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि ज्यादा चतुर खिलाड़ी शहबाज इमरान को मात देकर सेना का किस हद तक समर्थन हासिल कर सकते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)