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सिंगापुर में बनी एक उम्मीद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, आसियान-भारत अनौपचारिक बैठक और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) की मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए पिछले हफ्ते सिंगापुर में थे। सिंगापुर...

सिंगापुर में बनी एक उम्मीद
हर्ष वी पंत, प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज लंदन Sun, 18 Nov 2018 09:22 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, आसियान-भारत अनौपचारिक बैठक और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) की मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए पिछले हफ्ते सिंगापुर में थे। सिंगापुर फिनटेक फेस्टिवल में शिरकत करने के साथ ही वह पहले ऐसे शासनाध्यक्ष भी बन गए, जिन्हें ‘फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी’ के इस सबसे बड़े आयोजन को संबोधित करने का सम्मान प्राप्त हुआ है। यहां उन्होंने ऐसी बैंकिंग टेक्नोलॉजी को लॉन्च किया, जिसे दुनिया भर के उन दो अरब लोगों के लिए तैयार किया गया है, जिनके पास अब भी बैंक खाता नहीं है। 

बहरहाल, यह बदलते इंडो-पैसिफिक (हिंद-प्रशांत) क्षेत्र की भू-राजनीति और भू-आर्थिकी को समेटे था, जो कि प्रधानमंत्री के अधिकांश कार्यक्रमों के केंद्र में भी था। आरसीईपी की ही बात करें, तो लगभग 40 फीसदी वैश्विक कारोबार इन्हीं देशों में होता है। इसके 16 सदस्य देश हैं- 10 आसियान देश और शेष भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड। ये सभी देश मिलकर मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की कोशिशों में हैं। बेशक यह एक महत्वाकांक्षी योजना है और जल्द ही इस पर सहमति बनाने की बात भी की जा रही है, बावजूद इसके यह कई मामलों को लेकर उलझ गया है। इसे बनाने को लेकर बातें 2013 में ही शुरू हुई थीं, मगर उसकी प्रगति धीमी रही। हालांकि अब ट्रंप प्रशासन की संरक्षणवादी नीतियों ने इस पर बातचीत को एक नई गति दी है। ऐसे में, उम्मीद यही है कि इस संधि को अगले साल अमली जामा पहना दिया जाएगा। घरेलू राजनीति में आरसीईपी पर सहमति बनाने में भारत को भी मुश्किलें आई हैं और संभावना है कि टैरिफ कटौती पर कठिन फैसला अगले साल आम चुनाव के बाद ही लिया जाएगा। 

पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में भारत ने शिरकत करने वाले 17 अन्य नेताओं के साथ स्मार्ट शहर, आईटी, संचार, समुद्री सहयोग और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चर्चा की। पूर्वी एशिया सम्मेलन अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण बहुपक्षीय ढांचे के रूप में उभरा है, जिसमें हर साल तमाम साझेदार देश हिस्सा लेते हैं और एक-दूसरे की सुनते हैं। 10 आसियान देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका और रूस इसके सदस्य देश हैं। यह सम्मेलन भी भारत को ऐसा बेहतरीन मंच देता है कि वह क्षेत्रीय विकास के एक महत्वपूर्ण साझेदार के रूप में अपनी उपलब्धियों को सबके सामने रखे। इस साल पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने शांतिपूर्ण, मुक्त और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए भारत के नजरिये को दोहराया और समुद्री सहयोग बढ़ाने व संतुलित आरसीईपी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

सिंगापुर में प्रधानमंत्री मोदी ने आसियान-भारत द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन में भी हिस्सा लिया, जिसमें आसियान-भारत स्मारक शिखर सम्मेलन की दिल्ली घोषणा में तय किए गए लक्ष्यों में प्रगति पर चर्चा की गई। इस साल के आसियान-भारत शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हिंद-प्रशांत क्षेत्र की समृद्धि के लिए जरूरी समुद्री सहयोग और कारोबार की महत्ता पर जोर डाला। भारत की ‘एक्ट इस्ट पॉलिसी’ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र के क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे में इसकी महत्ता कोई छिपी बात नहीं है’। चीन पर निशाना साधते हुए उन्होंने यह भी आश्वस्त किया कि ‘नियम आधारित क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचा बनाने की दिशा में आसियान को लगातार समर्थन दिया जाएगा, क्योंकि यह क्षेत्रीय हितों और इसके शांतिपूर्ण विकास की दिशा में सर्वश्रेष्ठ प्रयास करता है’।

हिंद-प्रशांत में आसियान की महत्ता को भारत ने बार-बार जाहिर किया है। इस साल की शुरुआत में शांगरी-ला वार्ता के अपने भाषण में भी प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आसियान के साथ मिलकर भारत तहे-दिल से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लोकतांत्रिक व नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देगा। यह साझा स्थानों पर निर्बाध आवाजाही की अनुमति देता है और ‘क्लब ऑफ लिमिटेड मेंबर्स’ तक ही सीमित नहीं है। ‘क्लब ऑफ लिमिटेड मेंबर्स’ असल में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तरफ इशारा था।

दिलचस्प है कि ‘क्वाड’ को लेकर कुछ नहीं होने की बुदबुदाहट के बीच सिंगापुर में संयुक्त-सचिव स्तर की ‘क्वाड’ देशों की तीसरी बैठक भी हुई। ‘क्वाड’ में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। अब ये चारों देश उस लय को शायद ही बिगाड़ना चाहेंगे, जो धीरे-धीरे गति पकड़ रही है। बेशक इस दिशा में फिलहाल कुछ बड़ा नहीं हो रहा है, लेकिन ये चारों राष्ट्र किसी न किसी रूप में इसका लाभ उठाने को उत्सुक हैं। 

जाहिर है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र अब वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था के केंद्र में आ गया है, और हालिया घटनाक्रमों ने उन ट्रेंड को मजबूत किया है, जो पिछले कुछ समय से उभर रहे हैं। चीन इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी है और बीजिंग खुद को क्षेत्रीय व वैश्विक ताकत के रूप में पेश करने को लेकर पहले से कहीं ज्यादा निश्चयी है। चीन की खुशकिस्मती यह भी है कि अमेरिका में फिलहाल एक ऐसा प्रशासन है, जिसमें उद्देश्यों को लेकर गंभीरता का अभाव है और जो इस क्षेत्र के लिए अपनी प्राथमिकताओं को प्रभावी रूप से जाहिर कर पाने में अब तक असमर्थ रहा है। इसने इस क्षेत्र की दीर्घकालिक स्थिरता में महत्वपूर्ण दखल रखने वाले भारत जैसे देशों के लिए भी इस संक्रमण-काल को महत्वपूर्ण बना दिया है। चीन की भूमिका बढ़ रही है और अमेरिका अब भी अपनी सुरक्षा प्रतिबद्धताओं को लेकर उलझन में है, ऐसे में भारत के लिए इस क्षेत्र में एक नया अवसर है। इतिहास के विपरीत, नई दिल्ली अब उन तमाम दूसरे क्षेत्रीय खिलाड़ियों के साथ संबंध आगे बढ़ाने को लेकर उलझन में नहीं दिखता, जो क्षेत्र में सत्ता-संतुलन को स्थिर बनाने में भारतीय हितों का पोषण करते हैं। हालांकि बतौर आसियान सहयोगी भारत को रोजगार बढ़ाने की दिशा में खासतौर पर ध्यान देना होगा, जिसके लिए उसे घरेलू आर्थिक सुधार के एजेंडे को बढ़ावा देने, क्षेत्र के भीतर कनेक्टिविटी बढ़ाने और क्षेत्रीय संस्थानों में अधिक से अधिक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत है। अपने दौरों में प्रधानमंत्री मोदी को इन्हीं प्राथमिकताओं पर ज्यादा जोर देना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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