मेरे दो बौद्धिक नायक
बीते दशक में मैं कई बार कैम्ब्रिज गया हूं और यह शहर मुझे खासा पसंद भी है। अच्छे-अच्छे कैफे और बुकशॉप, विश्व के किसी अन्य देश की अपेक्षा हार्वर्ड और एमआईटी जैसे बौद्धिक प्रतिभाओं वाला यह शहर...
बीते दशक में मैं कई बार कैम्ब्रिज गया हूं और यह शहर मुझे खासा पसंद भी है। अच्छे-अच्छे कैफे और बुकशॉप, विश्व के किसी अन्य देश की अपेक्षा हार्वर्ड और एमआईटी जैसे बौद्धिक प्रतिभाओं वाला यह शहर किसी को भी आकर्षित करने की क्षमता रखता है।
मेरे लिए मैसाचुसेट्स के इस शहर का आकर्षण इसलिए भी है कि यह मेरे दो पसंदीदा विद्वानों का शहर है। एक हैं आधुनिक चीन के महान इतिहासकार रॉडरिक मैकफारस्वायर, जिन्हें मैं रॉड कहना पसंद करता हूं। 1930 में लाहौर में जन्मे रॉड के पिता औपनिवेशिक सरकार के कर्मचारी थे। उनकी शुरुआती पढ़ाई स्कॉटलैंड के बोर्डिंग स्कूल और बाद की ऑक्सफोर्ड में हुई। स्नातक करने के बाद वह पत्रकार बन गए और बीबीसी के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतिम यात्रा और इकोनॉमिस्ट के लिए माओ की सांस्कृतिक क्रांति का कवरेज किया। बाद में ब्रिटिश संसद में लेबर पार्टी के सांसद भी रहे।
1960 में, पत्रकार रहते हुए ही रॉड ने चाइना क्वार्टरली की शुरुआत की, जो बहुत जल्द समकालीन चीन पर सबसे प्रमुख अंग्रेजी पत्रिका बन गई। उन्होंने चीन पर कई किताबें भी लिखीं। संसद में दोबारा न चुने जाने पर पत्रकारिता की बजाय उन्होंने अकादमिक क्षेत्र चुना। 1980 में हार्वर्ड में प्रोफेसर और बाद में इसी के एक प्रमुख सरकारी विभाग के अत्यंत लोकप्रिय मुखिया बने। शिक्षण व प्रशासनिक दायित्वों के साथ उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति की उत्पत्ति पर तीन खंडों की ऐतिहासिक किताब भी लिखी।
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों के लिए सेवानिवृत्ति की कोई उम्र सीमा नहीं है। कुछ लोग तो अस्सी-नब्बे की उम्र तक पढ़ाते हैं। अधिसंख्य राजनेताओं की तरह अधिसंख्य अकादमिक भी नहीं जानते कि रिटायर कब होना है? रॉड मैकफारस्वायर कुछ अलग थे। उन्होंने अपने लिए नामांकित प्रतिष्ठित चेयर ऐसे समय में छोड़ी, जब किसी को भी इस पर यकीन नहीं हुआ। रिटायरमेंट के बाद भी ‘रॉड न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ बुक्स’ में लिखने के साथ ही सेमिनारों और युवाओं से संवाद के किसी भी अवसर के रूप में उनकी सक्रियता बनी रही। लेकिन अन्य शिक्षाविदों या राजनेताओं की तरह उनके अंदर पिछली उपलब्धियों या पदों से चिपके रहने की कोई इच्छा नहीं थी।
मेरे एक अन्य पसंदीदा विद्वान ईएस (एनुगा) रेड्डी भी बहुत जल्द वहीं चले गए। रेड्डी का जन्म नेल्लोर में 1925 में हुआ था। मद्रास से डिग्री लेने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह न्यूयॉर्क चले गए। उसके बाद संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा बने और 35 साल तक वहां अपनी सेवाएं दीं, जहां उनका अंतिम कार्यकाल असिस्टेंट सेक्रेटरी जनरल का था। संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने कई जिम्मेदारियां निभाईं। हालांकि, उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका नस्लभेद के खिलाफ स्पेशल कमेटी के मुखिया के तौर पर रही। 1960 से 1980 के बीच उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद के खिलाफ विश्व जनमत तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई। नस्लभेदी शासन के खात्मे के बाद रेड्डी दक्षिण अफ्रीका गए, तो उनका किसी नायक की तरह जबर्दस्त स्वागत तो हुआ ही, उच्च राजकीय सम्मान से भी नवाज गया। आज भी वहां उनके प्रति खासा सम्मान है।
दक्षिण अफ्रीका में काम करने के दौरान ही रेड्डी का गहरा बौद्धिक झुकाव गांधीजी के प्रति हुआ। आज साबरमती के आश्रम से बाहर इस विषय से संबंधित लेखों और कतरनों का सबसे बड़ा संग्रह उन्हीं के पास है, जिसे वह किसी भी देश के बौद्धिकों या शोधार्थियों से खुलकर साझा करते हैं। दूसरों द्वारा लिखी गई ऐसी अनगिनत किताबों का उनका संग्रह उन्हें और विशिष्ट बनाता है।
रेड्डी और उनकी तुर्की पत्नी मैनहट्टन में करीब 50 साल रहे। तुर्की के प्रख्यात कवि नाजिम हिकमत की कविताओं के कई अनुवाद उनकी पत्नी ने ही किए हैं। हालांकि कुछ साल पहले बेटी के आग्रह पर वे लोग कैम्ब्रिज में उसके साथ ही बस गए हैं। यहीं पिछले माह रेड्डी दंपति से उनके वेस्टर्न एवेन्यू स्थित नए अपार्टमेंट मिलना हुआ। हमारे बीच जो भी बातचीत हुई, उसके केंद्र में स्वाभाविक रूप से गांधी ही रहे।
इसी यात्रा में रॉड मैकफारस्वायर से भी उनके मेमोरियल ड्राइव स्थित अपार्टमेंट में मुलाकात हुई। पहुंचते ही एक अप्रत्याशित आश्चर्य से सामना हुआ जब रॉड ने कहा कि मैं तीसरा भारतीय हूं, जो हमेशा समय पर पहुंचता है। मैंने अन्य दो नाम पूछे, तो पता चला कि उनमें से एक थे देशभक्त और उदारवादी सांसद स्वर्गीय मीनू मसानी और दूसरे हैं अर्थशास्त्री से राजनेता बने कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी सुब्रमण्यम स्वामी।
रॉड मैकफारस्वायर और एनुगा रेड्डी एक-दूसरे को नहीं जानते। संभव है, वे एक-दूसरे के बारे में भी न जानते हों। फिर भी इस लेखक के जेहन में यह एक प्राकृतिक जोड़ी के रूप में दर्ज है। अकादमिक दुनिया और सार्वजनिक जीवन में दोनों का बड़ा योगदान है। दोनों की जड़ें अपने देश में तो गहरी हैं ही, इनकी ख्याति उन देशों में भी जबर्दस्त है, जो उनके नहीं हैं, चीन में रॉडरिक मैकफारस्वायर और दक्षिण अफ्रीका में एनुगा रेड्डी। और दोनों की कर्मभूमि भी संयुक्त राज्य यानी एक तीसरा देश रहा। रॉड और रेड्डी में दूसरी समानताएं भी हैं। इन्हें न अपने अतीत पर घमंड है, न उसके पीछे छूट जाने का मलाल। दोनों स्वभाव से विनोदी हैं और अपने समय और संसाधनों के प्रति उदार। रेड्डी ने अपना दुर्लभ दक्षिण अफ्रीकी संग्रह येल यूनिवर्सिटी और गांधी से जुड़ी सामग्री नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी को दान कर दिए। रॉड चीनी सामग्री का अपना दुर्लभ पुस्तकालय किसी भारतीय विश्वविद्यालय को देना चाहते हैं।
अक्तूबर का आखिरी हफ्ता कैम्ब्रिज में हार्वर्ड स्क्वायर के आसपास की किताब की दुकानों और वाल्डन तालाब का आनंद लेते जरूर बीता, लेकिन इस यात्रा का मुख्य आकर्षण अपने इन दो पसंदीदा नायकों का ‘दर्शन’ और उनसे हुआ संवाद था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)