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न राजनीति सुधरेगी, न पुलिस

भारतीय पुलिस सेवा में तीन दशकों से अधिक के अपने सफर के दौरान मुझे जिस बात से सबसे अधिक आश्चर्य होता था, वह थी भारतीय जनता के मन मे पुलिस सुधारों को लेकर पसरी हुई उदासीनता। यह देखकर मन उदास हो जाता था...

  न राजनीति सुधरेगी, न पुलिस
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 20 Nov 2017 10:56 PM
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भारतीय पुलिस सेवा में तीन दशकों से अधिक के अपने सफर के दौरान मुझे जिस बात से सबसे अधिक आश्चर्य होता था, वह थी भारतीय जनता के मन मे पुलिस सुधारों को लेकर पसरी हुई उदासीनता। यह देखकर मन उदास हो जाता था कि जिस संस्था से औसत भारतीय नागरिक का सबसे अधिक वास्ता पड़ता है, उसे बेहतर बनाने के लिए किसी तरह का कोई आंदोलन नहीं होता। अधिक से अधिक किसी थाने में हिरासती हत्या या दुव्र्यवहार पर हिंसक भीड़ सड़क पर उतरकर सरकार को उसे बलपूर्वक कुचलने का मौका दे देती है और सरकार भी छोटे-मोटे तबादलों या निलंबन से समस्या का फौरी हल निकालकर खुश हो जाती है। 
बड़ी से बड़ी घटना भी पुलिस में किसी बड़े बुनियादी परिवर्तन के लिए एक निर्णायक जन उभार का बायस नहीं बन पाती। मजेदार बात है कि पुलिस सुधारों के लिए जनता की नब्ज पर हाथ रखने वाले राजनीतिक नेतृत्व से अधिक अवकाश प्राप्त आईपीएस अधिकारियों ने आवाज उठाई है, पर उनकी सोच अक्सर एकांगी होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की सुप्रीम कोर्ट में दायर और उस पर अनुकूल निर्णय प्राप्त याचिका है। पर यह याचिका या इस तरह के अन्य प्रयास मुख्य रूप से पुलिस को अधिक अधिकार देने या अफसरों को तैनाती सुरक्षा की गारंटी जैसी मांगों तक सीमित रहे हैं, पुलिस ढांचे और व्यवहार में बुनियादी सुधार आम तौर से उनकी चिंता के विषय नहीं हैं। केंद्र और प्रदेश सरकारों की नजरों में भी पुलिस सुधारों का मतलब उसे अधिक घातक हथियार, तेज रफ्तार के वाहन या बेहतर संचार उपकरण देना है। ऐसे उपाय, जिनसे वह कानून-कायदों का पालन करने वाली पेशेवर संस्था बने, सरकार की प्राथमिकता में बड़े निचले पायदान पर होते हैं। हरियाणा में गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में सात साल के बच्चे प्रद्युम्न की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या और उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण पुलिस द्वारा उसकी लचर और गैर-पेशेवर तफ्तीश एक बार फिर से इस तथ्य को रेखांकित करती है कि पुलिस तंत्र में व्यापक और बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है।

रेयान पब्लिक स्कूल में जो कुछ हुआ, वह आमतौर से देश के अलग-अलग हिस्सों में हर दूसरे-तीसरे दिन होता ही रहता है। किसी गंभीर अपराध से विचलित जनता सड़क पर आंदोलित निकल पड़ती है और सामान्यतया उसकी मांगों में से एक होती है कि 24 घंटे या ऐसी ही किसी अल्प अवधि में अपराधियों को गिरफ्तार किया जाए। मुख्यमंत्री और दूसरे राजनेता भी जनता को धैर्य रखने और पेशेवराना तरीके से तफ्तीश को जारी रखने की सलाह देने की हिम्मत नहीं करते और उन्हें भी आसान रास्ता चाहिए कि जल्द से जल्द किसी अभियुक्त को प्रेस के सामने खड़ा कर दावा किया जाए कि यही है वह व्यक्ति, जिसने अपराध किया है। उन्हें पता है कि दूसरे दिन प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुर्खियां बनते ही जनाक्रोश झाग की तरह बैठ जाएगा और लोग संतुष्ट हो जाएंगे। जीवन फिर सामान्य गति से चलने लगेगा।  इस प्रसंग में यह भुला दिया जाता है कि दुनिया का कोई भी पेशेवर पुलिस बल हर गंभीर अपराध को पलक झपकते ही नहीं सुलझा सकता। जरूरत इस बात की है कि जांचकर्ताओं को धैर्य के साथ अपना काम करने दिया जाए। आज जब बहुत सारे वैज्ञानिक उपकरण जांचकर्ताओं को उपलब्ध हैं, तो उसे इनका उपयोग करने के लिए पर्याप्त समय भी चाहिए। पर जनता और राजनीतिज्ञों का दबाव उसे यही नहीं देता। 

गुरुग्राम से दो महीने पहले ही शिमला में ऐसी ही एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो चुकी थी, जब एक नेपाली मजदूर लड़की की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। हिमाचल प्रदेश के बहुत सारे इलाके आंदोलित हो उठे और जनता को संतुष्ट करने के चक्कर में राजनेताओं का जो दबाव पुलिस पर पड़ा, उससे घबराकर उसने वह सब किया, जो उसे नहीं करना चाहिए था। संदिग्धों को पकड़कर उसने तफ्तीश का सबसे आसान रास्ता, जिसे थर्ड डिग्री कहते हैं, अपनाया और उसकी मारपीट से एक अभियुक्त मर गया। नतीजतन आज के दिन उसके एक आईजी समेत कई अधिकारी हिरासत में हैं। गुरुग्राम पुलिस ने अपने पड़ोस में घटी इस घटना से कोई सबक नहीं लिया और प्रद्युम्न हत्याकांड में तुरत-फुरत कारगुजारी दिखाने के चक्कर में पड़ गए। बाद में सीबीआई ने सीसीटीवी के जिन फुटेज को देखकर किसी निष्कर्ष पर पहुुंचने में महीने भर का समय लिया, उन्हें डीकोड  करने में हरियाणा पुलिस को सिर्फ दो-तीन दिन का वक्त लगा। न सिर्फ उसने ‘हत्यारे’ को पकड़ लिया और हत्या में प्रयुक्त चाकू बरामद बताया, बल्कि अपराधी को प्रेस कांफ्रेंस में पेश कर उससे अपराध कुबूल भी करवा लिया। यदि सीबीआई की विवेचना सही है, तो हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं कि एक निर्दोष बस कंडक्टर को हफ्तों जेल में रखकर मानवाधिकारों का कितना बड़ा उल्लंघन किया गया है?
हमें गंभीरता से सोचना होगा कि क्यों हर बार पुलिस इतने गैर-पेशेवराना तरीके से व्यवहार करती है? मीडिया, नागरिक समाज और न्यायपालिका की वक्त-बेवक्त मिलने वाली चेतावनी के बावजूद उसका व्यवहार क्यों नहीं बदलता? इस मामले में कैसे वरिष्ठ अधिकारियों ने एक सब-इंस्पेक्टर को खुद उन्हें और जनता को फर्जी कहानियां गढ़कर बेवकूफ बनाने दिया? क्या इसमें वरिष्ठ अधिकारी संलिप्त नहीं थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री की शाबाशी हासिल करने के लिए जूनियर अधिकारियों को मनमानी करने दी? ये सारे सवाल हैं,  जिनके गुरुग्राम व हिमाचल की घटनाओं के संदर्भ में हल ढूंढ़ने के प्रयास होने चाहिए।

हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का कालजयी पात्र इंस्पेक्टर मातादीन चांद की पुलिस को प्रशिक्षित करते समय बताता है कि हम सबके अंदर एक ही ब्रह्म निवास करता है, इसलिए हत्या के बाद फांसी का फंदा किसी गले में पडे़, क्या फर्क पड़ता है? गुरुग्राम की पुलिस भी शायद इसी दर्शन में यकीन करती है- प्रद्युम्न की हत्या के जुर्म में बस कंडक्टर फांसी पर चढ़े या स्कूल का कोई छात्र, बात तो एक ही है। व्यंग्य में लिखे नैरेटिव की सार्थकता इसी में है कि वह हंसाने के साथ ही आपको तिलमिलाने पर भी मजबूर कर दे। पता नहीं, रेयान स्कूल में एक अबोध बच्चे की हत्या अपने पीछे कुछ गंभीर विमर्श छोड़ भी पाएगी या फिर सब कुछ सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा और हम ऐसी ही किसी दूसरी घटना का इंतजार करते रहेंगे?
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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