आंदोलनों की निरंतरता के दस्तावेज
किसी भी दौर में सरकार की ताकत से लड़ना मजाक नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सरकार और उसके विरोध के साथ ही लोकतंत्र का विकास हुआ है और भविष्य में भी होता रहेगा। इस वजह से सरकार की मुखालफत आज भी उतनी ही...
किसी भी दौर में सरकार की ताकत से लड़ना मजाक नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि सरकार और उसके विरोध के साथ ही लोकतंत्र का विकास हुआ है और भविष्य में भी होता रहेगा। इस वजह से सरकार की मुखालफत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1971, 1975 और 1977 में थी। क्या वाकई पूरी दुनिया में ऐसी कोई शख्सियत थी, जिसने कानून की अदालत में और जनता की अदालत में किसी मजबूत प्रधानमंत्री को हराया था? इतिहास के पन्नों में सिर्फ एक नाम है- राजनारायण का। राजनारायण ने 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट के जरिए देश की सशक्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का 1971 में रायबरेली सीट से जीता हुआ लोकसभा चुनाव रद्द करवाया था। उन्हें अदालत ने भ्रष्ट तरीके से चुनाव जीतने का दोषी करार दिया था और उन पर छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक लगा दी थी। उन्हीं राजनारायण ने 1977 में इंदिरा गांधी को रायबरेली लोकसभा चुनाव में हजारों वोटों से हराकर ऐतिहासिक चुनाव जीता था। सौ साल पहले 23 नवंबर, 1917 को बनारस में गंगापुर के मोतीकोट में पैदा हुए राजनारायण ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बीए, एलएलबी की पढ़ाई की और सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया व जेल भी गए। ब्रिटिश शासन से लेकर आजादी के बाद तक वे 80 से अधिक बार गिरफ्तार हुए और जेल गए। एक दौर में उनका यह नारा काफी चर्चित हुआ करता था- एक पैर रेल में, दूसरा पैर जेल में। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि जितना अधिक जुल्म होता था, उससे बड़ा उनका विरोध होता था। उनका मानना था कि जहां कायर और दब्बू रहते हैं, वहीं जालिम का जुल्म पलता है। वे लुके-छिपे नहीं, बल्कि निहत्थे एलानिया विरोध करते थे- हुंकार और ललकार के साथ। उनका नारा था- मारेंगे नहीं, पर मानेंगे नहीं।
वे चलते-फिरते आंदोलन थे। उनके आंदोलन अवकाश या मध्यांतर वाले नहीं, बल्कि निरंतर होते रहते थे। यकीन करना मुश्किल है कि हथियार, मोटर गाड़ी, रुपये-पैसे, कॉरपोरेट और मीडिया के सपोर्ट के बिना एक निहत्थे राजनारायण ने अपनी हिम्मत और संकल्प शक्ति के बल पर प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार और उसके अमले से टकराकर दो-दो जीत हासिल की। कौन जानता था कि उनके संघर्ष का वह दौर भारतीय संसदीय लोकतंत्र का स्वर्णिम इतिहास बन जाएगा। राम मनोहर लोहिया उनके आदर्श व प्रेरणा, दोनों थे। लोहिया के रहते उन्होंने कई ऐतिहासिक सत्याग्रह और आंदोलन किए थे, जैसे सन 1956 में काशी विश्वनाथ मंदिर में दलित प्रवेश आंदोलन, रानी विक्टोरिया की काशी में लगी मूर्ति भंजन आंदोलन, गरीबों को रोटी दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा में किया गया सत्याग्रह, जोतने वाले को खेत का मालिक बनाने, बिना मुनाफा खेती की लगान माफी का आंदोलन वगैरह। जहां भी नौजवान आंदोलन करते थे राजनारायण अविलंब बगैर बुलावे के पहुंच जाते और उनकी लड़ाई खुद लड़ते थे। शादीशुदा होने के बावजूद वह परिवार के बंधनों से मुक्त थे।
काशी के साधु की सधुक्कड़ी उनकी जिंदगी थी। वह जन्म से अधिक कर्म के रिश्तों को बनाते और निभाते थे। संपत्ति और संतति के विमोही राजनारायण का जीवन भक्तिकाल के कबीर और छायावाद के निराला जैसा था। 20वीं सदी के औगढ़ बनारसी राजनारायण ने भारत में एक विचित्र शैली की राजनीति का दिग्दर्शन कराया- हड़बोंग। किसी शब्दकोश में इसका अर्थ नहीं मिलेगा। उनके शब्द विचित्र होते थे। वे चिरकुट, फेंचट, सुल्फियाना, डेमोगाग, छैला, हड़बोंग, बकुलिया, झबरी, लंगड़ी बिलार आदि शब्दों वाले मुहावरे बोलते थे। नहाना-शौच छोड़कर उनका कुछ भी निजी नहीं था। रात में भी दरवाजा खुला रखते थे। चलते-चलते गाड़ी रोककर कार्यकर्ता से मिल लेते थे। फोन करने में कोई संकोच नहीं था। इंदिरा गांधी को छोड़कर उनसे किसी को भी फोन करवा लिया जाता था।
इंदिरा गांधी सरकार के मंत्री राजनारायण के नाम पर चिहुंकते थे, पर उनकी बात काटते नहीं थे। कमला पति त्रिपाठी से तो वे बड़े अधिकार के साथ बात करते थे। दोनों के संबंध विरोधी होते हुए भी आत्मीय थे। एक बार दिल्ली के एक प्रसिद्ध वकील के बेटे को पाकिस्तान का वीजा चाहिए था। नहीं मिल पा रहा था। वे आए और नेता जी से अपनी मुश्किल का बयान किया। सुनाकर बोले, जिया उल हक को फोन मिलवाओ। और पाकिस्तान के राष्ट्रपति फोन लाइन पर। राजनारायण बोले, जिया भाई, यह हमारे दोस्त हैं। इनके बेटे को वीजा नहीं मिल रहा है। बस फिर क्या था, एक घंटे के अंदर पाकिस्तान दूतावास से फोन आ गया और वीजा बन गया। अब कौन करेगा अपने साथी के लिए फोन इतनी धमक के साथ? वे अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे। 1977 में जब उनका जन्मदिन मनाने की योजना बनी और बहुत जोर देकर पूछा गया, तो कहने लगे कि हमें तो अपने जन्मदिन की तारीख नहीं पता है। बाद में उनके बड़े भाई घूरन सिंह यानी मैनेजर साहब ने बताया कि सन 1917 की अक्षय नवमी को उनका जन्म बनारस में हुआ था। संयोग था कि 1977 में अक्षय नवमी 19 नवंबर को पड़ी थी।
उसी दिन यानी 19 नवंबर को इंदिरा गांधी की भी जन्मतिथि थी। दोनों का जन्म साल भी 1917 ही है। उस कार्यक्रम में बाबू जगजीवन राम को आमंत्रित किया गया। वाराणसी टाउन हाल में कार्यक्रम शुरू ही हुआ था और जगजीवन बाबू बोलने ही वाले थे कि अकस्मात बगैर सूचना राजनारायण का आगमन हो गया। उस कार्यक्रम में जगजीवन बाबू ने राजनारायण पर बहुत बढ़िया बोला था। काफी दिनों बाद उनके परिजनों ने संस्कृत विश्वविद्यालय के शोध छात्रों से पंचांग दिखवाकर यह कंफर्म कर दिया कि सन 1917 को अक्षय नवमी अंग्रेजी की 23 नवंबर को पड़ी थी। वे अपने आप में एक विचित्र राजनीतिक फेनौमेना थे। ग्रामीण वांग्मय लिए लोकतंत्र, कानून, समाजवाद की गहरी समझ के साथ अपनी बनारसी और हिंदी के जरिए वे बड़ों-बड़ों को चुप करा देते थे। अंग्रेजीपरस्तों को चिढ़ाने के लिए वे अंग्रेजी की टांग तोड़कर बोलते थे। सुप्रीम कोर्ट तक में हिंदी में पैरवी करते थे। खादी का कुर्ता-धोती और सिर पर लाल या हरा साफा, हाथ में लकुठि- यह उनकी पहचान थी। बकौल उनके लोकशाही के चार लक्षण हैं-लोकभोजन, लोकभाषा, लोकभूषा, लोकभवन। राजनारायण सत्याग्रह और आंदोलनों की निरंतरता का दस्तावेज थे। जब-जब भारत के संसदीय लोकतंत्र के पन्नों को पलटा जाएगा, राजनारायण का नाम सुर्खियों में लिखा मिलेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)