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सामूहिकता जब नजीर बन जाए

अच्छे से बाल बांधकर पीली टी-शर्ट पहने पांच साल की सौम्या कश्यप की फोटो देखकर एकाएक नजरें उसकी बड़ी-बड़ी आंखों पर टिक जाती हैं। सौम्या की गोलमटोल आंखें न जाने दुनिया को खोजने की चाहत बयां करती हैं। फोटो...

सामूहिकता जब नजीर बन जाए
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारSat, 09 Dec 2017 01:40 AM
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अच्छे से बाल बांधकर पीली टी-शर्ट पहने पांच साल की सौम्या कश्यप की फोटो देखकर एकाएक नजरें उसकी बड़ी-बड़ी आंखों पर टिक जाती हैं। सौम्या की गोलमटोल आंखें न जाने दुनिया को खोजने की चाहत बयां करती हैं। फोटो में दिख रही उसकी आंखों की चमक और मासूम चेहरा अब असल जिंदगी में देखने को नहीं मिल पाएगा। दो महीने पहले शनिवार के दिन स्कूल जाते समय वह स्कूल बस के पहियों के नीचे आ गई। दिल दहला देने वाली यह घटना सिर्फ सौम्या की ही नहीं है, बल्कि ऐसी दर्दनाक घटनाएं रोजाना देश की सड़कों पर होती हैं। पिछले साल के आंकड़ों को देखें, तो पता चलता है कि भारत में हर दिन  29 बच्चे सड़क हादसों में अपनी जान गंवाते हैं। इस साल जनवरी की बात है, जब उत्तर प्रदेश के एटा में तेज गति से आ रहे ट्रक ने स्कूल बस को टक्कर मार दी और इस घटना में 25 नन्हे बच्चों की जिंदगी चली गई। कई बच्चे घायल हुए थे। 42 सीट वाली इस स्कूल बस में करीब 66 बच्चे बैठे थे। 

बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल बसों की सुरक्षा से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए थे। इसके बाद 2005 में ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ने स्कूल बसों में सुरक्षा जरूरतों के लिए एआईएस मानक 063 जारी किया था। एटा की घटना के बाद सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन ने कहा था कि अगर सुरक्षा में लापरवाही बरती गई, तो स्कूल की मान्यता तक रद्द हो सकती है। ये मानक किस हद तक लागू हुए, यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी दिक्कत यह है कि ऐसे मानक उन स्कूल वैन, आरटीवी या मिनी बसों पर लागू नहीं होते, जिन पर बड़ी संख्या में बच्चों को स्कूल लाया और ले जाया जाता है, क्योंकि ये वाहन बहुत किफायती होते हैं। मोटर वाहन अधिनियम 1988 में बच्चों की सुरक्षा को लेकर कोई निर्देश नहीं दिया गया है, हालांकि अब इस कानून में कई बदलाव किए जा रहे हैं। इसके नए स्वरूप में यह जोड़ा गया है कि चार साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिए हेलमेट लगाना अनिवार्य है और 14 साल से कम उम्र के बच्चों की सुरक्षा वयस्कों को सीट बेल्ट या वाहन में बच्चों से जुड़े सुरक्षा सिस्टम लगाकर सुनिश्चित करानी होगी। यह बिल अभी कानून नहीं बना है, क्योंकि लोकसभा में तो यह पास हो गया है, मगर राज्यसभा में अभी इसका पारित होना बाकी है। 

एक दूसरी दिक्कत यह भी है कि भारत में बच्चों की सुरक्षा को लेकर बने कानून अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं। मसलन, अमेरिका के कोड ऑफ फेडरल रेगुलेशन 49, स्टैंडर्ड नंबर  213 में ‘चाइल्ड रिस्ट्रेंट सिस्टम’ का अभाव, यानी बच्चों की सुरक्षा के लिए वाहनों की सीट या बैठने का तरीका ऐसा डिजाइन किया जाना, जिससे बच्चे की सुरक्षा बढ़े। इसमें बैकलेस रिस्ट्रेंट, बेल्ट से जुड़ी सीट, बूस्टर सीट, कार बैड, ऐंकर या हेलमेट इत्यादि शामिल है। भारत में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत कार में कोई सीट सिर्फ बच्चों के लिए हो या बच्चों के हेलमेट हों। हेलमेट पहनने से गंभीर चोट से 70 फीसदी तक बचा जा सकता है और 40 फीसदी तक मृत्यु का खतरा कम होता है। इसके अलावा भारत में बच्चों के लिए स्टैंडर्ड हेलमेट ही नहीं मिलते। बच्चे या तो बड़ा हेलमेट पहनते हैं, या फिर उन्हें हेलमेट पहनाया ही नहीं जाता। ‘चाइल्ड रिस्ट्रेंट सिस्टम’ का इस्तेमाल दुनिया भर में किया जाता है।

यह दुर्घटना के समय शिशुओं के 70 फीसदी और छोटे बच्चों के 54 से 80 फीसदी तक मृत्यु के खतरे को कम करता है। हमारे देश में मांएं अक्सर अपने बच्चे को बुरी नजर और तमाम तरह की होनी-अनहोनी से बचाने व बलाओं को टालने के लिए काला टीका लगाती हैं। जब हम अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर इतने चिंतित हैं, तो बच्चों की सड़क सुरक्षा को लेकर क्यों कोताही बरतते हैं? 
पिछले साल देश के दस हजार से ज्यादा बच्चों की जान सड़क हादसों में गई। लेकिन ये आंकड़े उन बच्चों के हैं, जो सड़क पर आवागमन कर रहे थे। इसके साथ ही एक चिंताजनक बात यह भी है कि सड़क पर रहने वाले बच्चों की दुर्घटनाओं के हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है। उन्हें तो सुरक्षा की श्रेणी में भी नहीं रखा गया है, जबकि उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। सुरक्षा हर बच्चे का अधिकार है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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