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उतार पर अमेरिकी उच्च शिक्षा का जादू

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आव्रजन से जुड़ी घोषणाओं का असर दुनिया के हर कोने से उच्च शिक्षा के लिए वहां पहुंचने वाले छात्रों की संख्या पर पड़ा है। पर्यटन के बाद उच्च शिक्षा अमेरिका की आमदनी का...

उतार पर अमेरिकी उच्च शिक्षा का जादू
हरिवंश चतुर्वेदी डायरेक्टर, बिमटेकMon, 20 Nov 2017 12:50 AM
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आव्रजन से जुड़ी घोषणाओं का असर दुनिया के हर कोने से उच्च शिक्षा के लिए वहां पहुंचने वाले छात्रों की संख्या पर पड़ा है। पर्यटन के बाद उच्च शिक्षा अमेरिका की आमदनी का एक बड़ा स्रोत है। वहां उच्च शिक्षा हासिल कर रहे 11 लाख विदेशी छात्र खरबों डॉलर खर्च करते हैं। मगर हाल ही में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में छाया अमेरिकी उच्च शिक्षा का जादू कम हो रहा है। कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे देश उसके प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन द्वारा जारी ‘ओपन डोर्स’ रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016-17 में अमेरिका में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की संख्या सिर्फ 12.3 प्रतिशत बढ़ी, जो पिछले तीन वर्षों में सबसे कम वृद्धि आंकी गई है। वर्ष 2015-16 और 2014-15 में यह वृद्धि क्रमश: 24.9 प्रतिशत और 29.4 प्रतिशत थी।

फिलहाल अमेरिका में पढ़ रहे भारतीय विद्यार्थियों की संख्या 1.86 लाख है, जो वहां के कुल विदेशी छात्रों का 17.3 प्रतिशत है। इन भारतीय विद्यार्थियों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को इस वर्ष 44,000 करोड़ रुपये की आमदनी हुई। हर साल अमेरिका जाने वाले भारतीय पर्यटक भी करीब 80,000 करोड़ रुपये वहां खर्च करते हैं। अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भारत से होने वाली इस कमाई में कमी आती है, तो राष्ट्रपति ट्रंप का चिंतित होना स्वाभविक होगा, क्योंकि दोनों देशों के आपसी व्यापार में अमेरिका को करीब 1.3 लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। अमेरिका की मुश्किल यह है कि वहां पढ़ रहे कुल विदेशी विद्यार्थियों की संख्या मे एक तिहाई का योगदान देने वाले चीनी विद्यार्थी भी घट रहे हैं। वर्ष 2016-17 में चीनी विद्यार्थियों की संख्या सिर्फ 6.8 प्रतिशत बढ़ी, जो पिछले 11 वर्षों में सबसे कम वृद्धि है। यही हाल दूसरे देशों से अमेरिका आने वाले विद्यार्थियों का है। सऊदी अरब से आने वाले विद्यार्थी 14 प्रतिशत और ब्राजील से आने वाले विद्यार्थी 32 प्रतिशत कम हुए हैं।

पढ़ाई के लिए अपना देश छोड़कर पश्चिम के किसी विकसित देश में जाकर दाखिला लेना कोई नई प्रवृत्ति नहीं है। प्राचीन काल में भारत के नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में दक्षिण-पूर्वी एशिया और खासतौर से चीन से विद्यार्थी उच्च शिक्षा हासिल करने आते थे। ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालय भी दुनिया भर के विद्यार्थियों के लिए लंबे वक्त तक आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उच्च शिक्षा के लिए विदेशी विद्यार्थियों का बड़ी संख्या में आना उस देश को सिर्फ वित्तीय लाभ नहीं देता, बल्कि बौद्धिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक जगत में उसकी धाक भी स्थापित करता है। सवाल यह है कि अमेरिका में आने वाले विदेशी विद्यार्थियों की संख्या में आई गिरावट को क्या एक नए दौर की शुरुआत माना जाए, जिसमें बौद्धिक स्तर पर अमेरिका का प्रभुत्व खत्म हो जाएगा और उसका स्थान अन्य पश्चिमी व एशियाई देश ले लेंगे? अनेक पश्चिमी और एशियाई देश अब उच्च शिक्षा में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं। दुनिया में करीब 50 लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं। विदेशी शिक्षा और डिग्री आज दुनिया में गौरव का प्रतीक है। कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, ब्रिटेन, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों की सरकारें अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को विश्व-स्तर पर प्रचारित करती रही हैं। पिछले कुछ दशकों से चीन, हांगकांग, सिंगापुर, मलेशिया और संयुक्त अरब अमीरात भी इसमें आगे आ रहे हैं।

भारतीय विद्यार्थियों के अमेरिका जाने में आ रही कमी का फायदा कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों को मिल रहा है। वर्ष 2015 में 32 हजार भारतीय विद्यार्थी कनाडा गए, जिनकी संख्या वर्ष 2016 में 53 हजार हो गई थी। वर्ष 2016 में 11 हजार भारतीय विद्यार्थी ब्रिटेन और 14 हजार जर्मनी गए थे। जर्मनी जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों की संख्या हर साल 15 से 20 प्रतिशत बढ़ रही है। यूरोपीय संघ में भी करीब 45 हजार भारतीय छात्र पढ़ रहे हैं। अमेरिका की तुलना में यूरोपीय संघ की बढ़ती लोकप्रियता का प्रमुख कारण वहां फीस का कम होना, आसानी से स्कॉलरशिप मिलना और पढ़ाई के बाद रोजगार की अनुमति होना भी है।
हालांकि भारतीय छात्रों का विदेश जाना अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक जगत में स्पद्र्धा के लिए उनके आत्म-विश्वास को दिखाता है, पर उस हताशा को भी दर्शाता है, जो भारत में विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा की मांग व पूर्ति में बढ़ते अंतर से पैदा हो रही है। आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्यवर्ग की आबादी में तेजी से विस्तार हुआ है। इन सभी को अब अच्छी शिक्षा और अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की जरूरत है। तमाम विफलताओं के बाद भी भारतीय लोकतंत्र की यह एक बड़ी कामयाबी है कि यह करोड़ों परिवारों में उम्मीद जगाने में सफल रहा है कि बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई कराके वह उनके भविष्य को बदल सकता है।

मगर क्या हर मध्यवर्गीय युवा विश्व स्तरीय उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा सकता है? जाहिर है, यह असंभव है। तो क्या हम हर प्रतिभाशाली भारतीय युवा को उच्च स्तरीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रवेश दे पा रहे हैं? आंकड़े बताते हैं कि देश की उच्च शिक्षा एक पिरामिड की तरह है, जहां विश्व स्तरीय शिक्षा देने वाले संस्थान गिने- चुने हैं और रोजगारपरक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले संस्थान भी बहुत कम ही विद्यार्थियों को दाखिला दे पाते हैं। पिछले तीन दशकों में उच्च शिक्षा में जो भी विकास हुआ, वह मात्रात्मक अधिक व गुणात्मक रूप से बहुत कम रहा है। आकार और संख्यात्मक दृष्टि से भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था चीन के बाद दूसरे नंबर पर आती है। मगर भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था वर्तमान में गंभीर दिशाहीनता, वित्तीय संकट, अराजकता और गुटबंदी का शिकार है। ऐसे में, यूजीसी और एआईसीटीई की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे उच्च शिक्षा के नियमन का एक नया मॉडल विकसित करें, ताकि देश की उच्च शिक्षा आने वाले दशक में विश्व स्तरीय बन सके। भारत को अगर विश्व गुरु बनना है, तो उच्च शिक्षा के केंद्रों में अच्छे गुरु तो रखने ही होंगे, उन्हें पढ़ाने के लिए जरूरी संसाधन भी उपलब्ध कराने होंगे।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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