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एक करिश्मा जो विराट है

मार्च 2016 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विराट कोहली के दो शानदार स्क्वॉयर ड्राइव देखने के बाद मैंने ट्वीट किया था, ‘यह मेरे बचपन के हीरो, मेरी कल्पना वाले इंडिया इलेवन के जीआर विश्वनाथ को देखने...

एक करिश्मा जो विराट है
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारSat, 20 Jan 2018 01:06 AM
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मार्च 2016 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विराट कोहली के दो शानदार स्क्वॉयर ड्राइव देखने के बाद मैंने ट्वीट किया था, ‘यह मेरे बचपन के हीरो, मेरी कल्पना वाले इंडिया इलेवन के जीआर विश्वनाथ को देखने जैसा है।’ उस दिन विराट ने अपनी क्रिकेट महानता के प्रति आश्वस्त कर दिया था। 2012 के बेंगलुरु टेस्ट में विराट के 100 शानदार रन के साथ ही मैं इस चमत्कार के असर में आया था। न्यूजीलैंड की उस जबर्दस्त आक्रामकता के सामने सचिन बहुत साधारण दिखते थे, लेकिन एक ऐसा खिलाड़ी, जो सचिन को सब कुछ मानता था, पूरी तरह आत्मविश्वास से लबरेज दिख रहा था। दो साल बाद एडीलेड टेस्ट में भारत को शानदार विजय दिलाने वाली उसकी शानदार पहली कप्तानी पारी अब तक जेहन में है। विराट की लगातार परफॉरमेंस का नतीजा था कि बचपन में बनी छवियां नया आकार लेने लगीं। मेरी कल्पना में नई ‘ऑल टाइम इंडिया इलेवन’ आकार लेने लगी थी, जिसमें सहवाग, गावस्कर, द्रविड़, तेंदुलकर के साथ सिर्फ विराट थे, जिनकी जगह तय थी।
यह दो साल पहले की बात है। अब, लगातार उनकी लंबी छलांग और हाल के 153 रनों वाली टेस्ट पारी देखने के बाद कह सकता हूं कि विराट किसी भी फॉरमेट और परिस्थिति में खेलने में सक्षम भारत के महानतम बल्लेबाज हो सकते हैं। मेरी नजर में द्रविड़ और गावस्कर, सहवाग और सचिन भी हर जगह बराबर नहीं चल पाए। सचिन का कप्तान बनना कई बार उनकी परफॉरमेंस पर भारी दिखा। लेकिन इस सबके उलट बतौर कप्तान विराट कोहली कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से भरे दिखते हैं। विराट से मैं सिर्फ एक बार मिला हूं, लेकिन उस अकेली बातचीत और अपनी जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि वह अब तक के सबसे ज्यादा करिश्माई भारतीय खिलाड़ी हैं। 

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के चार महीने के अपने कार्यकाल में विराट की दृढ़ता देखी। उनमें चीजों और लोगों को नियंत्रित करने की गजब की क्षमता है। बीसीसीआई के अधिकारी तो विराट के आगे ऐसा नतमस्तक दिखते हैं, जैसा नरेंद्र मोदी के सामने उनकी कैबिनेट भी नहीं करती होगी। महत्वपूर्ण फैसलों में वे विराट का मुंह देखते हैं। भारत में राजनीति हो या कारोबार, अकादमिक क्षेत्र हो या खेल, उपलब्धि और व्यक्तित्व को जब भी साथ मिलाया गया है, संस्था किसी एक व्यक्ति के प्रभामंडल में समाती दिखाई दी है। यही यहां भी दिखाई दिया है। पर यह भी सच है कि मैदान या मैदान के बाहर विराट वाकई विराट दिखते हैं। भारतीय खेल इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें क्रिकेटीय महानता के साथ-साथ मानसिक सतर्कता व निजी करिश्मे का इतना जबर्दस्त मेल दिखता हो। 
हां, कुंबले जरूर हैं, जो एक हद तक कोहली के आसपास दिखते हैं। शायद दोनों में टकराव और कुंबले के जाने की वजह भी यही थी। उनके जाने पर कई सवाल हैं। शायद इसलिए कि बीसीसीआई के कानूनी पैरोकार और सीईओ की तरह ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनोनीत प्रशासकों की कमेटी ने भी विराट के व्यक्त्वि से आक्रांत होकर समर्पण कर दिया था। यही हाल कथित चयन समिति का भी हुआ, जब टॉम मूडी और अन्य प्रतिद्वंद्वियों के सामने रवि शास्त्री का चयन महज इसलिए हो सका, क्योंकि विनोद राय, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली और वीवीएस लक्ष्मण में से कोई भी कप्तान के सामने कुछ बोल नहीं पाया। 

कुछ विराट भक्त भारतीय कप्तान की हालिया पारियों के संदर्भ में इस लेख की टाइमिंग पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन खुद को याद दिलाने का यही सही वक्त है कि व्यक्तित्व की महानता को संगठन पर हावी होने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। खेल में हमें बनाए रखने के लिए कोहली ने वह सब किया, जो वह कर सकते थे, लेकिन किसी टीम के अंदर एक व्यक्ति की शक्ति की सीमा तय होनी चाहिए। क्या यह सच नहीं है कि अगर रहाणे दोनों टेस्ट खेलते, भुवनेश्वर कुमार इस टेस्ट में खेले होते, अगर घर में श्रीलंका के साथ गली क्रिकेट खेलने की बजाय हमारी टीम दो हफ्ते पहले दक्षिण अफ्रीका गई होती, तो ताजा दौरे के नतीजे कुछ और होते। 
बीसीसीआई और उसकी उपलब्धियों पर चहकने वाले भारत को विश्व क्रिकेट का केंद्र मानते हैं। मौद्रिक शर्तों पर यह सही होगा, पर खेल के संदर्भ में सही नहीं है। ब्राजील के फुटबॉल प्रेमियों की अपेक्षा हमारे यहां क्रिकेट को लेकर दस गुना ज्यादा बुखार है। बीसीसीआई के पास मुद्रा की भी कमी नहीं है। अब ऐसे मजबूत आधार में तो भारत को विश्व की शीर्ष टीम होना चाहिए था। इस बात का कोई कारण ही नहीं था कि  टीम इंडिया घरेलू या विदेशी मैदान पर कोई भी टेस्ट मैच, एकदिनी या टी-20 या सीरीज हारती। बीते 70 साल में भी अगर हम ऑस्टे्रलिया की जमीन पर कोई सीरीज नहीं जीत पाए, तो  यह हमारे उस प्रबंधन की चूक है, जिस पर खेल का दारोमदार था।  

भारतीय क्रिकेट भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का शिकार तो था ही, अब इसने ‘सुपरस्टार सिंड्रॉम’ के रूप में नई बीमारी पाल ली है। विराट महान खिलाड़ी हैं, पर संस्थागत ढांचे के ‘नियंत्रण व संतुलन’ के बगैर उनकी टीम उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकती, जिसकी दरकार है। आज भारतीय क्रिकेट में चयनकर्ता, कोचिंग स्टाफ व प्रशासक, सब के सब विराट के सामने बौने दिखते हैं, जो गलत है। चयनकर्ताओं को तो वास्तविक उपलब्धियों वाला क्रिकेटर होना चाहिए। कोच को बेहिचक निर्णायक कदम उठाने चाहिए। प्रशासकों को भी अहम और निजी लाभ किनारे रख विदेशी जमीन पर ज्यादा से ज्यादा विजयी संभावनाओं वाला कैलेंडर बनाना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के दौरे से सबक लेने की जरूरत है। भारत दक्षिण अफ्रीका में लगातार टेस्ट मैच या सीरीज जीतने लगे, और ऐसा ही ऑस्ट्रेलिया में होने लगे, तब जाकर हम खुद को विश्व क्रिकेट का बादशाह कह पाएंगे। हमारे पास यह सब कर सकने वाली टीम भी है, और लीडर भी। हालांकि कप्तान का अधिकार क्षेत्र और अक्खड़पन उसकी व्यक्तिगत सफलता के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन इसे संस्थागत बनाने के लिए कई बार नियंत्रण करने की जरूरत होती है। विराट अभी 29 साल के हैं। वह दक्षिण अफ्रीका में एक बार फिर भारत को नेतृत्व देंगे ही। ऑस्ट्रेलिया भी कम से कम एक बार से ज्यादा तो जाना ही है। दो साल पहले विराट ने मेरी कल्पना की ‘ऑल टाइम इंडिया इलेवन’ में मजबूत जगह बनाई थी। मेरी इच्छा और दृढ़ आकांक्षा है कि वह अपने कॅरियर को उस बिंदु पर विराम दें, जहां वह मेरी कल्पना वाली ‘ऑल टाइम इंडिया इलेवन’ के सफल कप्तान भी हों।
 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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