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सुविधाहीन लोगों का अर्थशास्त्री

रांची अगर प्रसिद्ध क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी के लिए ख्यात है, तो झारखंड की इसी राजधानी से एक अन्य प्रवासी का नाम भी जुड़ा है, जिसे अपने खुले विचारों और सामाजिक कार्यों के लिए सम्मान से देखा जाता है।...

सुविधाहीन लोगों का अर्थशास्त्री
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 16 Feb 2018 10:38 PM
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रांची अगर प्रसिद्ध क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी के लिए ख्यात है, तो झारखंड की इसी राजधानी से एक अन्य प्रवासी का नाम भी जुड़ा है, जिसे अपने खुले विचारों और सामाजिक कार्यों के लिए सम्मान से देखा जाता है। धौनी ने अगर देश को अपने खेल से पहचान दी, तो रांची की इस दूसरी हस्ती ने लोगों को आजीविका सुरक्षा के साथ ही पलायन से बचाने में मदद की। उनकी पहचान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की अवधारणा में उनकी केंद्रीय भूमिका से है, तो नरेगा का मसौदा तैयार करने के साथ ही इसके कार्यान्वयन पर पैनी नजर रखने के लिए भी। सूचना के अधिकार और खाद्य सुरक्षा कानूनों में उनकी  महत्वपूर्ण भूमिका है।
फरवरी की शुरुआत में मैं रांची में था। पता था, धौनी शहर में नहीं हैं। यह भी सही है कि उनमें न मुझे ज्यादा रुचि है और न शायद उनकी ही मुझमें कोई रुचि हो। लेकिन इस दूसरे रांचीवासी से मिलने में मेरी रुचि भी थी और मैंने उनसे मिलना सुनिश्चित भी कर रखा था। 

ज्यां द्रेज से पहले की भी कई मुलाकातें हैं। एक बार नब्बे के दशक की शुरुआत में, जब वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ा रहे थे और श्रमिक आवास में रहते थे। नब्बे के दशक में ही हम फिर मिले, जब वह दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ा रहे थे और तीमारपुर की झुग्गी झोपड़ी उनकी रिहाइश थी। तीसरी मुलाकात 2000 के दशक की शुरुआत में हुई, जब द्रेज बेंगलुरु आए और मैं उन्हें रेलवे स्टेशन पर छोड़ने गया, जहां से वह ट्रेन के अनारक्षित दर्जे में आगे का सफर करने वाले थे। वह तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में सरकारी मिड डे मील योजना का सच देखने निकले थे। दिल्ली में एक मुलाकात होते-होते रह गई, क्योंकि उन्हें अचानक ब्रसेल्स निकलना पड़ा। ज्यां द्रेज उन दिनों भारत की नागरिकता लेने की प्रक्रिया में थे। यह कठिन कार्य तो था ही, उससे भी कठिन बेल्जियंस को इस बात पर राजी करना था कि वह वहां की नागरिकता छोड़ रहे थे। अवसर विशेष की इन मुलाकातों के अलावा हम दोनों का पत्राचार भी चलता रहता। इसमें एक-दूसरे के काम की तारीफ भी होती, आलोचना भी। 

ज्यां द्रेज मुझसे एक साल छोटे हैं। हमारे काम में भी खासी समानता है। हमने भारत में ही पीएचडी की, आमतौर पर यहीं काम करते रहे हैं और यहां के बारे में लिखते रहे हैं। हालांकि इस सबके बावजूद हमारी जीवनचर्या बहुत अलग है और मेरे रांची प्रवास का मकसद भी ज्यां द्रेज और उनके जीवन  के बारे में ज्यादा से ज्यादा नई जानकारी जुटाना था। तयशुदा कार्यक्रम के अनुरूप हम उनके रांची विश्वविद्यालय स्थित डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स के कार्यालय में मिले और फिर उनकी मोटरसाइकिल से निकल पड़े। रांची-हजारीबाग मेन रोड पर आधे घंटे चलने के बाद हम राजमार्ग से उतर कर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर थे। रास्ते में पीपल के एक पेड़ के नीचे मोटरसाइकिल खड़ी कर पैदल चलते हुए एक पहाड़ी पर पहुंचे। सुदूर घाटी का मनोरम नजारा और मुंडा आदिवासियों के फीरोजी नीले रंग में पुते घर किसी सुंदर लैंडस्केप की रचना कर रहे थे। यहां बैठकर बातें करने का सुख ही अलग था। ज्यां द्रेज का जन्म 1959 में प्राचीन शहर लीउवेन में हुआ। पिता जैक्स द्रेज विश्वविख्यात आर्थिक सिद्धांतकार व जाने-माने शिक्षक थे और पत्नी के साथ ही उनकी सार्वजनिक जीवन में गहरी पैठ थी। ज्यां द्रेज इसी माहौल में पले-बढ़े। उनके एक भाई वामपंथी राजनीति में चले गए, दूसरे ने मार्केटिंग का प्रोफेसर बनना और तीसरे ने अनुवादक का करियर चुना। 

ज्यां द्रेज की रुचि विकास अर्थशास्त्र में परवान चढ़ती और वह दिल्ली स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान में प्रवेश लेते कि इससे पहले एसेक्स यूनिवर्सिटी से डिग्री ले चुके थे। सांख्यिकी संस्थान में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात अमत्र्य सेन से हुई, जिनके साथ मिलकर वह अब तक चार किताबें लिख चुके हैं और दो अन्य का संपादन किया है। मैंने अमत्र्य सेन को कहते सुना है कि इस सबमें नब्बे फीसदी काम द्रेज का है, लेकिन इसका नब्बे फीसदी श्रेय मुझे मिला है। स्वाभाविक रूप से यह अतिशयोक्तिपूर्ण है और इसे पचास-पचास माना जाना चाहिए, क्योंकि किसी भी बौद्धिक साझेदारी में बराबरी के सहयोग बिना मुकम्मल काम नहीं हो सकता। हां, पाठक दोनों का समान रूप से आभारी होता है।

अमत्र्य हावर्ड में पढ़ा रहे हैं। द्रेज ने भारत में बसने का फैसला लिया और अर्थशास्त्रीय शोध के हमारे सबसे उत्कृष्ट संस्थान में सबसे पहले अध्यापन किया। इसके बाद वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए और फिर रांची विश्वविद्यालय आ गए। भारत के सुविधाहीन छात्रों को पढ़ाना और साधनविहीन पिछड़े ग्रामीण इलाकों में काम करना बतौर विकास अर्थशास्त्री उनका धर्म बन चुका था। यह उनकी तपस्वी प्रकृति और चरित्र के अनुरूप ही था। द्रेज वेतन नहीं लेते। जरूरतें इतनी कम हैं कि किताबों की रायल्टी और अखबारी लेखन के मानदेय से ही पूरी हो जाती हैं। भारत के ग्रामीण इलाकों में वर्षों काम करने के बाद अब वह अच्छी हिंदी बोल लेते हैं। 
पहाड़ियों में कई घंटे घूमने के हमारी बाइक वापस लौटी। ढाबे पर खाना खाते हुए हम शहर के बाहरी इलाके के एक आदिवासी गांव में उनके ‘घर’ पहुंचे, जो एक झोपड़ी के पिछवाड़े में बना कमरा था। तय है कि कुछ दिन बाद यह भी शहरीकरण की भेंट चढ़ चुका होगा। ज्यां द्रेज की बनाई चाय और चिड़ियों की आवाज के बीच यहां हमने कुछ और बातें साझा कीं। 

ज्यां द्रेज ने बताया कि जल्द ही वह हिंदी में फिर से एक नियमित स्तंभ लिखने जा रहे हैं। उनके ऐसे ही लेखों का संग्रह सेंस ऐंड सॉलिडैरिटी  शीर्षक किताब में हाल ही में आया है, जिसका उप शीर्षक झोलावाला अर्थशास्त्र- सबके लिए  खुद-ब-खुद अपनी विषय-वस्तु का बयान है। इसमें खाद्य सुरक्षा से लेकर चिकित्सा सतर्कता, बच्चों के अधिकार से लेकर परमाणु युद्ध के खतरे जैसे वैविध्यपूर्ण विषयों की लंबी शृंखला है। किसानों, आदिवासियों, श्रमिकों और प्रवासियों के जीवन व संघर्ष को गहराई से समझने में यह खासी मददगार है। उनकी लेखन शैली जितनी सहज और स्पष्ट है, विश्लेषण उतने ही तीखे और तर्कसंगत, लेकिन वह  एकपक्षीय शायद ही कभी होते हों। भारतीय लोकतंत्र के भविष्य और देश के विकास में जरा भी रुचि रखने वालों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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