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जैकब जुमा की यही नियति थी

दक्षिण अफ्रीका में अभी जो कुछ हुआ है, उसकी भूमिका पहले से तैयार हो रही थी। जब अपनी पार्टी ही खिलाफ हो जाए, तो किसी राजनेता के लिए पद पर बने रहना कमोबेश नामुमकिन हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका के...

जैकब जुमा की यही नियति थी
एचएचएस विश्वनाथन, पूर्व राजदूत और अफ्रीकी मामलों के जानकारThu, 15 Feb 2018 10:56 PM
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दक्षिण अफ्रीका में अभी जो कुछ हुआ है, उसकी भूमिका पहले से तैयार हो रही थी। जब अपनी पार्टी ही खिलाफ हो जाए, तो किसी राजनेता के लिए पद पर बने रहना कमोबेश नामुमकिन हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति (अब पूर्व) जैकब जुमा के साथ यही हुआ है। बीते दिसंबर में हुई अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की सालाना बैठक में उनसे पार्टी नेतृत्व का पद छीन लिया गया था और सिरिल रामफोसा को, जो तब पार्टी उपाध्यक्ष थे, नया नेता चुना गया था। इसके बाद से ही जुमा पर राष्ट्रपति पद छोड़ने का दबाव बढ़ रहा था। जुमा और रामफोसा में कभी तीखे मतभेद नहीं रहे। तीन साल पहले तक भी दोनों करीबी मित्र माने जाते थे। मगर जब जुमा के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला सामने आया, तो रामफोसा ने खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर की। माना जाता है कि रामफोसा के ऐतराज के बाद ही एएनसी ने जुमा को पार्टी नेता पद से हटाने का फैसला लिया। मगर क्या हालिया घटनाक्रम रामफोसा की नाराजगी का परिणाम है? ऐसा नहीं लगता। जैकब जुमा की छवि हाल के वर्षों में काफी दागदार हो चुकी थी। उन पर मूल रूप से 1999 के एक रक्षा सौदे में वित्तीय गड़बड़ी करने का आरोप है। गुप्ता परिवार के हक में पक्षपात करने सहित कई अन्य आरोप भी उन पर हैं। लोगों का भरोसा उन पर से उठ ही चुका है। 

दक्षिण अफ्रीका का यह सत्ता परिवर्तन इतना उथल-पुथल भरा न होता, यदि जुमा जिद न पालते। वह बार-बार सफाई देते रहे कि साजिशन उन्हें पद से हटाया जा रहा है, इसलिए वह मैदान छोड़कर जाने वाले नहीं। नतीजतन, पिछले दसेक दिनों से वहां खासा गतिरोध बना हुआ था। मगर रामफोसा ने पहले ही पार्टी को अपना रुख बता दिया था कि अगर एक हफ्ते के अंदर जुमा पद नहीं छोड़ते, तो वह अपने स्तर से फैसला ले लेंगे। जुमा जहां अपने ऊपर लगाए गए तमाम आरोपों को झुठलाते रहे, वहीं यह भी दलील देते रहे कि चूंकि इस साल ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका का संगठन) सम्मेलन जोहानिसबर्ग में प्रस्तावित है, इसलिए मेजबान देश के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में उन्हें इसमें शिरकत करने का मौका मिलना चाहिए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी विकास समुदाय (एसएडीसी) की प्रस्तावित बैठक में भी शामिल होने की मांग रखी थी। मगर जन-विरोध और पार्टी के तीखे तेवर को देखते हुए उन्हें राष्ट्रपति पद से हटना ही पड़ा। 

बहरहाल, अब सिरिल रामफोसा कार्यकारी राष्ट्रपति बनाए गए हैं। अगले साल वहां राष्ट्रपति का चुनाव तय है और चूंकि पार्टी के मुख्य उम्मीदवार वही होंगे, इसलिए देश के नए मुखिया भी वही बनेंगे। स्वाभाविक है कि इस बदलते घटनाक्रम के बाद वहां की सियासत में आई गहमागहमी भी शांत होगी। हालांकि देखना यह होगा कि पद छोड़ने के लिए जुमा और रामफोसा में कोई गुप्त समझौता तो नहीं हुआ है? यह आशंका इसलिए है, क्योंकि तीन दिन पहले तक जुमा कुरसी छोड़ने को तैयार नहीं थे, पर रामफोसा के घर आकर मिलने के बाद उनके सुर बदलने लगे थे। तो क्या यह मान लिया जाए कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम केस हटा लिए जाएंगे? इसे लेकर फिलहाल तो कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन यदि ऐसा हुआ भी, तो जुमा के लिए शायद ही वह मददगार साबित हो। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका की न्यायपालिका बहुत निष्पक्ष व स्वतंत्र है। रामफोसा ने यदि मुकदमा न चलाने का भरोसा जुमा को दिया भी होगा, तो भी मुमकिन है कि अदालत उसे नजरअंदाज कर अपने तईं आपराधिक मामले के तहत उन पर मामला चलाने का निर्देश जारी कर दे। ऐसा होने पर जुमा सलाखों के पीछे भी भेजे जा सकते हैं। जुमा इस अंजाम तक पहुंचेंगे, डेढ़-दो दशक पहले तक यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आम लोगों के बीच वह खूब लोकप्रिय रहे हैं। 1990 के दशक में, जब वह रंगभेद आंदोलन के जनक नेल्सन मंडेला के साथ काम कर रहे थे, तो उनका जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। मगर पिछले दसेक वर्षों में उनकी लोकप्रियता कम होती गई और अब तो मानो जमीन पर ही आ गई है। दिलचस्प है कि जन-सेवा की बात कहने वाले जुमा को भ्रष्ट आचरण के कारण पद से हटना पड़ा है और रामफोसा राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म करने के अपने आह्वान से ही राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं। 

सवाल यह भी है कि क्या इस घटनाक्रम का भारत के साथ रिश्ते पर कोई असर पड़ेगा? मेरा मानना है कि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में गरमाहट पहले की तरह बनी रहेगी। भारत इसे वहां का अंदरूनी मामला मानता है और हमारी नीति किसी के घरेलू मामले में हस्तक्षेप करने की कभी नहीं रही है। इतना ही नहीं, दक्षिण अफ्रीका एक ऐसा देश है, जिसका तंत्र काफी मजबूत है। उस पर जुमा के जाने या रामफोसा के आने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हालांकि एक तथ्य है, जो हमें परेशान कर सकता है। इस पूरे मामले में जिस गुप्ता परिवार का नाम सामने आया है, उसका नाता भारत से है। गुप्ता बंधु अनिवासी भारतीय हैं, पर उनके पास भारतीय पासपोर्ट है या ब्रिटिश, इसका पता अब तक नहीं चला है। मगर गुप्ता बंधु दक्षिण अफ्रीका के आम लोगों की नजर में तो भारतीय ही हैं। ऐसे में, वित्तीय अनियमितता के आरोपों में उनका घिरना हमारे लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। वैसे, वहां के लोग इस सच से भी वाकिफ होंगे कि उद्योगपतियों की अपनी ही नीति होती है। साफ है, दक्षिण अफ्रीका और भारत की दोस्ती पहले की तरह मजबूत रहेगी। सच भी यही है कि दोनों देश रिश्तों को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं। हमारा आपसी कारोबार तो बढ़ ही रहा है, कई अन्य मंचों पर भी हम एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। ब्रिक्स के अलावा भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का संगठन ‘इब्सा’ भी सक्रिय है, जिसने दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई दी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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