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गांधी से लेनिन की कैसी तुलना

मैं कूटनीतिज्ञ इवान मैस्की की डायरी पढ़ रहा था। मैस्की 1932 से 1943 तक ब्रिटेन में रूस के राजदूत के रूप में सेवारत थे। वह इतिहास और भाषा विज्ञान के विद्वान थे। अंग्रेजी धारा प्रवाह बोलते थे। वह हिटलर...

गांधी से लेनिन की कैसी तुलना
रामचंद्र गुहा (प्रसिद्ध इतिहासकार),नई दिल्ली।Mon, 14 Oct 2019 12:33 AM
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मैं कूटनीतिज्ञ इवान मैस्की की डायरी पढ़ रहा था। मैस्की 1932 से 1943 तक ब्रिटेन में रूस के राजदूत के रूप में सेवारत थे। वह इतिहास और भाषा विज्ञान के विद्वान थे। अंग्रेजी धारा प्रवाह बोलते थे। वह हिटलर और स्टालिन के दौर, सोवियत-नाजी संधि और उसकी टूट के गवाह रहे थे। मैस्की की डायरियां स्वाभाविक ही ब्रिटिश और यूरोपीय घटनाओं, व्यक्तित्वों पर केंद्रित है। हालांकि पुस्तक के 12वें पृष्ठ पर एक भारतीय राजनेता का अकेला और दिलचस्प विवरण है। महात्मा गांधी के कुछ समय के लिए कांग्रेस से अवकाश लेने की खबर सुनकर मैस्की ने 4 नवंबर, 1934 को डायरी में लिखा है, ‘मेरे पास फिलिप मिलर की लिखी पुस्तक लेनिन ऐंड गांधी  है, जो 1927 में वियना से प्रकाशित हुई थी। इसमें लेखक दो नेताओं के रेखाचित्र बहुत ही कुशलता से उकेरता है और उन्हें अपने समय के दो समान कद्दावर बताता है। लेकिन...लेनिन एक ऐतिहासिक मों ब्लां (आल्पस का सबसे ऊंचा पर्वत) हैं, मानवता के हजार साल के विकास में एक उज्ज्वल मार्गदर्शक शिखर हैं, जबकि गांधी महज एक कागजी पहाड़, जो एक संदिग्ध प्रकाश के साथ दसेक वर्षोंके लिए चमके थे, फिर तेजी से बिखर गए। वह कुछ ही वर्षों में इतिहास के कूडे़दान में भुला दिए जाएंगे। समय और घटनाएं बहुमूल्य धातुओं को हल्के नकलचियों से अलग कर देती हैं।’

मैस्की वस्तुत: लेनिन द्वारा स्थापित सोवियत राज्य के एक ईष्र्यालु निष्ठावान कर्मचारी थे। लेकिन इसके 13 साल पहले ही एक युवा भारतीय मुंबई के श्रीपद अमृत डांगे ने भी लेनिन को गांधी से ऊपर बताते हुए निबंध लिख दिया था। 1921 में प्रकाशित डांगे की इस पतली पुस्तक का नाम था- गांधी बनाम लेनिन।  डांगे के तर्क थे- ‘गांधी एक प्रतिक्रियावादी विचारक थे, जो धर्म और व्यक्तिगत विवेक के पक्ष में थे। दूसरी ओर, लेनिन ने आर्थिक उत्पीड़न की संरचनात्मक जड़ों की पहचान की और सामूहिक कार्रवाई करते हुए उत्पीड़न समाप्त करने की मांग की।’ डांगे कभी रूस नहीं गए थे, न उन्होंने अपने नेता को अपनी आंखों से देखा था, फिर भी वह विश्वास के साथ कह सकते थे कि बोल्शेविकों ने रूस से किया ‘भूमि, रोटी व शांति’ का अपना वादा पूरा कर दिया है। छह वर्ष बाद ब्रिटिश संसद के एक ऐसे वामपंथी सदस्य ने गांधीजी को खुला पत्र लिखा, जो भारत में ही जन्मे, पले-बढ़े थे। शप्रूजी दोराबजी सकलतवाला ने गांधीजी पर भटकाने का आरोप लगाया। उन्होंने लिखा कि गांधीजी ने चरखा आंदोलन से मशीनरी, भौतिक विज्ञान और भौतिक विकास पर हमला बोला। शप्रूजी ने गांधीजी के साथ कमाल अतातुर्क, सन येत-सेन और लेनिन की अनुचित तुलना करते हुए लिखा, ‘जहां इन नेताओं ने मुखरता और निडरता से लोगों की अव्यक्त आवाज को व्यक्त किया, वहीं गांधीजी ने भारतीयों को गुलाम आज्ञाकारिता और इस विश्वास के लिए तैयार किया कि वे पृथ्वी पर श्रेष्ठ लोग हैं।’

शप्रूजी के पत्र के 1927 में प्रकाशन के दो वर्ष बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के भगत सिंह सामने आए। सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद गिरफ्तार हो चुके भगत सिंह ने बयान जारी कर दावा किया कि उनका कृत्य अहिंसा के उस यूटोपियन युग का अंत है, जिसकी निरर्थकता के प्रति युवा पीढ़ी किसी भी शक के साये से परे आश्वस्त है। इस क्रांतिकारी ने युवा भारतीयों से आग्रह किया कि वे गांधी से मुंह मोड़ लें और उसकी जगह लेनिन की हिंसक क्रांति की राह पर चलें। इवान मैस्की की ही तरह 1920 और 1930 के दशक के भारतीय वामपंथी लेनिन की पूजा करते थे और गांधी से घृणा। शप्रूजी ने दावा किया कि लेनिन के रूस ने पूरी मानवता को रास्ता दिखाया। गांधी को सलाह भी दी गई थी कि ‘वह अपने कार्यक्रम को छोड़ दें और हमारे साथ आ जाएं, हमारे कार्यकर्ताओं, किसानों और युवाओं को संगठित करने के लिए आध्यात्मिक भावुकता के साथ नहीं, बल्कि एक निर्धारित उद्देश्य के साथ काम करें।’  लेकिन जैसा कि हुआ, लेनिन के उत्तराधिकारी स्टालिन ने श्रमिकों, किसानों और अनेक युवाओं को पूरी निर्ममता से दंडित किया। 1930 के दशक का अंत आते-आते साफ हो गया कि सोवियत क्रांति राजनीतिक और आर्थिक, दोनों ही रूपों में एक मनहूस आपदा थी, लेकिन इसके बाद भी काफी समय तक कुछ पश्चिमी सुधारवादियों के बीच इस क्रांति के संस्थापक के लिए भावुकता बनी रही।  संडे टाइम्स, लंदन में जनवरी 1972 में प्रकाशित एक लेख मैंने हाल ही में देखा है, जिसमें आलोचक सिरिल कोनोली ने लेनिन को ज्यादा महान बताते हुए लिखा है, ‘अगर लेनिन भी गांधी की तरह लंबा जीते, तो स्टालिन नहीं हो पाते। तब क्या कोई हिटलर भी होता?’ कोनोली को लगता है, हिटलर और नाजीवाद के उभार को लेनिन रोक लेते। डांगे की तरह कोनोली भी आश्वस्त थे कि लेनिन की विरासत आधुनिक दुनिया में ज्यादा प्रासंगिक रहेगी।  

गौर कीजिए, कोनोली ने 1972 में यह लेख तब लिखा था, जब लेनिन के रूस में श्रमिकों को कोई अधिकार हासिल नहीं था, जबकि गांधी के भारत में वे ज्यादा वेतन और बेहतर सेवा शर्तों के लिए हड़ताल कर सकते थे। विडंबना यह कि डांगे और मैस्की पार्टी द्वारा भुगतान-पोषित थे, कोलोनी तो उच्च वर्ग के ऐसे उदारवादी थे, जो अच्छे भोजन व शराब के शौकीन थे। लेनिन अगर उनके देश पहुंच जाते, तो कोनोली भी उनके पहले शिकारों में एक होते। संयोग से लेनिन को भी अच्छा भोजन और बढ़िया शराब पसंद थी, दूसरी ओर, कथित बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी गांधी एक आम कार्यकर्ता या किसान की तरह रहते थे। सोवियत रूस में जो कम्युनिस्ट नेता सत्ता में थे, वे रईसों की तरह रहते थे।
गांधी के छह महीने बाद लेनिन पैदा हुए थे। दोनों समकालीन थे, तो यह भी दोनों की तुलना का एक बड़ा कारण रहा है। भारत ने हाल ही में गांधी की 150वीं वर्षगांठ को धूमधाम से, तमाम आलोचनाओं के साथ, मनाया है। यह देखना रोचक होगा कि रूस और दुनिया लेनिन की 150वीं वर्षगांठ को कैसे मनाती है? मैं सोचता हूं, यह बोलना यथोचित होगा कि कुल मिलाकर, विद्वानों और आम लोगों के बीच भी, मरणोपरांत गांधीजी की वैश्विक प्रतिष्ठा लेनिन से बेहतर है। आज दुनिया में अहिंसा व परस्पर विश्वास, सद्भाव के भारतीय पुरोधा गांधी का ही नैतिक और राजनीतिक अनुसरण होने की अधिक संभावना है। वही हैं- मानवता के हजार साल के विकास में एक उज्ज्वल मार्गदर्शक शिखर। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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