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लाल हुए नेपाल की हकीकत

शेर बहादुर देउबा एक ऐसी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर हैं, जिसके पहिए पंचर हो चुके हैं। पिछले संसदीय चुनाव में नंबर वन नेपाली कांग्रेस की स्थिति ‘न खुदा ही मिला, न विसाले-सनम’ जैसी है। नेपाली...

लाल हुए नेपाल की हकीकत
पुष्परंजन संपादक, ईयू-एशिया न्यूजTue, 12 Dec 2017 10:47 PM
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शेर बहादुर देउबा एक ऐसी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर हैं, जिसके पहिए पंचर हो चुके हैं। पिछले संसदीय चुनाव में नंबर वन नेपाली कांग्रेस की स्थिति ‘न खुदा ही मिला, न विसाले-सनम’ जैसी है। नेपाली संसद ‘प्रतिनिधि सभा’ में शिकस्त के साथ सात राज्यों की विधानसभाओं में तीसरे नंबर पर आकर ऐसी मुंह की खानी पड़ेगी, शेर बहादुर देउबा ने सोचा न था। 7 जून, 2017 को प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण करने वाले शेर बहादुर देउबा की कुंडली में लंबे समय तक पीएम की कुरसी पर बैठना नहीं लिखा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद 23 अगस्त, 2017 को देउबा दिल्ली आए थे, तब निश्चिंत थे कि नेपाली कांग्रेस आम चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करेगी। पीएम की कुरसी संभालने से एक माह पहले 14 मई को गांवों, नगरों और मेट्रो पालिकाओं के पहले दौर के चुनाव परिणाम देउबा ने देख लिए थे, जिनमें नेपाली कांग्रेस, और नेकपा-एमाले को सौ-सौ से अधिक सीटें, और प्रचंड की पार्टी ‘माओवादी केंद्र’ को 50 के लगभग सीटें मिली थीं। 18 सितंबर, 2017 को थर्ड फेज के नतीजे जब आए, नेकपा पहले नंबर पर, दूसरे स्थान पर नेपाली कांग्रेस और तीसरे स्थान पर प्रचंड की पार्टी’ नेकपा माओवादी केंद्र’ थी। दिल्ली में राजदूत रहे दीप कुमार उपाध्याय भी चुनाव हार गए।

तीन महीने में नेपाली कांग्रेस का ग्राफ इतना गिर जाएगा, यह रणनीतिक कुशलता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। शेर बहादुर देउबा 7 मार्च 2016 को नेपाली कांग्रेस के सभापति चुने गए थे। यदि वाम गठबंधन से अलग करके प्रचंड की पार्टी ‘नेकपा-माओवादी’ को मिले मतादेश का आकलन करें, तो नुकसान उन्हें भी हुआ है। बाबूराम भट्टराई की पार्टी नया नेपाल को तो जनता ने लगभग नकार ही दिया है। पिछली प्रतिनिधि सभा में 593 सदस्य थे। इनमें नेपाली कांग्रेस के 225, नेकपा-एमाले के 181, नेकपा (माओवादी केंद्र) के 85, राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल के 24, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के 19, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी डेमोक्रेटिक के 18, फेडरल सोशलिस्ट फोरम नेपाल के 15, नेकपा-माले के पांच, नेपाल वर्कर्स पीजेंट्स पार्टी के चार, राष्ट्रीय जनमोर्चा के तीन, नेपाल परिवार दल के दो, अन्य पार्टियों के 10 व निर्दलीय दो सांसद सदन में थे।

इस समय तीन बड़े सवालों पर विमर्श चल रहा है। एक, नेपाल की तीन दिग्गज वामपंथी पार्टियां ‘नेकपा-एमाले’, प्रचंड की ‘नेकपा-माओवादी केंद्र’ और बाबूराम भट्टराई की पार्टी को एक करने में क्या चीन की कोई भूमिका रही है? दूसरा यह कि नेपाल के मामले में मोदी सरकार की कूटनीति क्यों विफल रही है? तीसरा, तीनों वाम पार्टियों के नेताओं में ऐसी कौन सी समानताएं हैं, जिससे उन्हें जोड़ने में आसानी हुई? नेपाल की राजनीति पर बेबाकी से बोलने वाले सी के लाल ने बिना किसी लाग-लपेट के दो कारणों का जवाब दिया। पहला यह कि तीनों कम्युनिस्ट नेता केपी शर्मा ओली, पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ और बाबूराम भट्टराई पहाड़ी ब्राह्मण हैं। और दूसरा यह कि तीनों पूर्व प्रधानमंत्री हैं। अब इसमें जो कुछ जोड़ना बाकी रह जाता है, वह यह कि ये तीनों ही नेता नई दिल्ली से विरोध की और चीन से चिकनी-चुपड़ी राजनीति करते हैं। चीन यूं भी देउबा सरकार द्वारा ढ़ाई अरब डॉलर की ‘बुढ़ा गंडकी जल विद्युत परियोजना’ के रद्द किए जाने के कारण खुन्नस में था। 

नेपाल में हर चार साल पर संसदीय चुनाव का प्रावधान है। 601 सदस्यीय संसद का गठन जनवरी 2018 से पहले कर लेना है। मतदान दो चरणों में 26 नवंबर और 7 दिसंबर को तय समय पर हुआ। 335 सदस्य समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते हैं, बाकी 26 सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री को करना है। 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में दो-तिहाई बहुमत के लिए 184 सीटें आवश्यक हैं। इसमें 165 सांसदों का चुनाव ‘फस्र्ट पास्ट पोस्ट प्रणाली’ (एफडीटीपी) के जरिए और बाकी 110 सांसदों को ‘पार्टी लिस्ट प्रोपोर्शनल रिप्रजेंटेशन’ के  माध्यम से चुनने का प्रावधान है। ‘एफडीटीपी’ के 165 में से 160 सीटों के जो परिणाम 12 दिसंबर को 12 बजे तक प्राप्त हुए, उनमें नेकपा एमाले को 77, नेकपा-माओवादी केंद्र को 36, नेपाली कांग्रेस को 21, आरजेपी-नेपाल को 11, संघीय सोशलिस्ट फोरम को 10, नया शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय जनमोर्चा, नेपाल मजदूर किसान पार्टी और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को एक-एक सीट मिली हैं। एक निर्दलीय भी जीता है। बाकी पांच में ‘नेकपा-एमाले’ चार पर, ‘आरजेपी’ एक पर आगे चल रही है। समानुपातिक प्रतिनिधित्व में भी नेकपा-एमाले लीड ले चुकी है। यहां नेपाली कांग्रेस दूसरे नंबर पर है। खबर है कि वाम गठबंधन ने दो-तिहाई सीटों का आंकड़ा पार कर लिया है। 

सात राज्यों के गठन के बाद नेपाल में पहली बार विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हुए। कुल 330 सीटों में से 318 के परिणाम 11 दिसंबर की देर रात तक आ चुके थे। सात प्रांतों में नेपाली कांग्रेस का तीसरे नंबर पर रहना और छह प्रांतों में नेकपा-एमाले का लीड ले लेना बड़ी बात है। केवल प्रांत संख्या दो में राष्ट्रीय जनता पार्टी-नेपाल (राजपा) को फतह मिली है। ‘राजपा’ मधेस की छह पार्टियों का गठबंधन है, जिसका नेतृत्व राजेंद्र महतो कर रहे हैं। प्रांत संख्या- दो के अंतर्गत धनुषा, पर्सा, बारा, महोत्तरी, रौतहट, सप्तरी, सर्लाही, सिरहा, कपिलवस्तु, नवलपरासी-पश्चिम, रूपंदेही, कैलाली जिलों को शामिल किया गया है, जो तराई के इलाके हैं। इस पूरे चुनाव के केंद्र में केपी शर्मा ‘ओली’ रहे हैं। ओली जिस मजबूती से उभरे हैं, ऐसे संकेत हैं कि ‘महामस्तिकाभिषेक’ उन्हीं का होगा। 24 जुलाई, 2016 को ‘ओली’ ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। तब ओली ने नई दिल्ली के विरुद्ध गोली दागते हुए कहा था, ‘मेरी सरकार को गिराने के लिए भारत ने माओवादियों, राजावादियों, और तराई की पार्टियों का इस्तेमाल किया। हम भूलेंगे नहीं।’ कोई डेढ़ साल पहले ओली का बेआबरू होकर जाना, कहीं न कहीं चीनी कूटनीति की हार भी थी। सवा साल के बाद नेपाल की वाम राजनीति में जो ‘आधारभूत बदलाव’ हुआ है, और केपी शर्मा ओली की जिस तरह से वापसी हुई है, उसके कूटनीतिक निहितार्थ नई दिल्ली के लिए एक बड़ी चुनौती की तरह हैं। 
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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