गरीबों का ख्याल रखें डॉक्टर
बचपन में सुभाषिनी का कभी स्कूल और अस्पताल से पाला नहीं पड़ा। परिवार में सभी अनपढ़ थे। गांव में बेटियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था। आस-पास के इलाके में कोई अस्पताल भी नहीं था। छोटी-मोटी बीमारी का...
बचपन में सुभाषिनी का कभी स्कूल और अस्पताल से पाला नहीं पड़ा। परिवार में सभी अनपढ़ थे। गांव में बेटियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था। आस-पास के इलाके में कोई अस्पताल भी नहीं था। छोटी-मोटी बीमारी का इलाज घरेलू उपचार से ही हो जाता था, इसलिए कभी अस्पताल जाने की नौबत भी नहीं आई। घर का गुजारा खेती से होता था। होश संभालते ही मां ने घर के कामकाज सिखा दिए। 12 साल की उम्र में शादी हो गई। मायके की तरह ससुराल में भी गरीबी से जूझना पड़ा। पति मजदूरी करते और गुजारा बड़ी मुश्किल से ही हो पाता था।
मात्र 21 साल की उम्र में वह चार बच्चों की मां बन गईं- एक बेटी और तीन बेटे। जिंदगी पटरी पर आ ही रही थी कि अचानक एक हादसा हुआ। तब वह 23 साल की थीं। उनकी बेटी मात्र डेढ़ साल की थी। अचानक पति की तबियत खराब हुई। इलाज के लिए पैसे नहीं थे, और अस्पताल में उनसे इलाज के लिए पैसे जमा कराने को कहा गया। अचानक कहां से लातीं पैसा? जब तक कुछ इंतजाम कर पातीं, पति की मौत हो गई। सुभाषिनी कहती हैं, मेरी समझ में ही नहीं आया कि यह सब कैसे हो गया? पहली बार अस्पताल से पाला पड़ा था। तब एहसास हुआ कि गरीबी किसी की जान भी ले सकती है। अगर मेरे पास इलाज के पैसे होते, तो मैं अपने पति की जान बचा लेती।
सब कुछ बिखर चुका था। मगर उनके पास तो शोक मनाने तक का वक्त नहीं था। चार मासूम बच्चों की जिम्मेदारी थी। घर चलाने के लिए घरों में चौका-बर्तन करने लगीं। बच्चों को पढ़ाना चाहती थीं, मगर हालात ऐसे नहीं थे कि उन्हें स्कूल भेज पातीं। चौका-बर्तन से इतने पैसे नहीं मिलते थे कि गुजारा हो पाता। इसलिए वह मजदूरी करने लगीं। बड़े दो बेटे भी उनके साथ काम पर जाने लगे। उनकी उम्र सात और आठ साल की थी। तीसरा बेटा चार साल का था। उसे अनाथालय भेजना पड़ा। लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि उसे पढ़ाएंगी जरूर। मन को यह बात हमेशा कचोटती रहती थी कि पति बिना इलाज के चल बसे। सुभाषिनी कहती हैं, मैंने तय किया कि बेटे को डॉक्टर बनाऊंगी, ताकि वह गरीबों का इलाज कर सके। मगर यह बात मैंने किसी से साझा नहीं की। अनाथालय में मैंने उसकी पढ़ाई का इंतजाम किया।
बेटा स्कूल जाने लगा। छुट्टी के दिन उससे मिलने जाया करतीं। जब भी उससे बात करने का मौका मिलता, तो उसे डॉक्टर बनने के लिए प्रेरित करतीं। इस सबके बीच जिंदगी की जद्दोजहद जारी रही। बड़ा संघर्ष करना पड़ा। सुभाषिनी काम की तलाश में बच्चों के संग गांव छोड़कर धापा इलाके में आ गईं। यह लैंडफिल वाला इलाका था, पर बडे़ पैमाने पर सब्जी की खेती भी होती थी। वह सड़क किनारे दुकान लगाकर सब्जी बेचने लगीं। कुछ समय कचरा बीनने का काम भी किया। इस बीच बैंक में अपना खाता खोला। घर के खर्च से कुछ पैसे बचाकर वहां जमा करने लगीं। कोई नहीं जानता था कि उन्होंने कितने पैसे जमा किए और वह क्या करने वाली हैं? बीस साल का लंबा अरसा यूं ही बीत गया। बच्चे बड़े हो गए। उनकी शादी भी कर दी। इस बीच तीसरे बेटे ने डॉक्टर की पढ़ाई पूरी कर ली। तब उन्होंने अपने मन की बात बताई। उसे याद दिलाया कि इलाज के अभाव में किस तरह उसके पिता की मौत हो गई थी।
डॉक्टर अजॉय कहते हैं, मां ने मुझे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। जब डॉक्टर बन गया, तब भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बेटा, खूब नाम कमाओ, खूब पैसा कमाओ। उन्होंने बस यही कहा कि वह गरीबों के लिए अस्पताल बनाना चाहती हैं। यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। मुझे नाज है अपनी मां पर।
अब बारी थी सपने को साकार करने की। अस्पताल के लिए जमीन की जरूरत थी। बीस साल की बचत से एक बीघा जमीन खरीदी। वह जानती थीं कि अस्पताल के निर्माण के लिए आर्थिक मदद की जरूरत होगी, इसलिए 1993 में ह्यूमिनिटी ट्रस्ट बनाया। इसी जमीन पर छप्पर डालकर बेटे ने अस्थाई क्लीनिक खोली। यहां आम मरीजों से बहुत कम पैसे लिए जाते थे और गरीबों का इलाज फ्री में किया जाता था। उन्होंने अस्पताल बनाने के लिए लोगों से मदद मांगी। स्थानीय लोग उनके प्रयासों से खुश थे। किसी ने ईंट खरीदने के लिए पैसे दिए, तो किसी ने सीमेंट के लिए। सुभाषिनी बताती हैं, जिनके पास पैसे नहीं थे, उन्होंने श्रमदान किया।
सपना साकार होने लगा था। साल 1996 में हंसपुकुर गांव में अस्पताल बनकर तैयार हो गया। उद्घाटन किया पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल केवी रघुनाथ रेड्डी ने। आज राज्य में उनके दो अस्पताल हैं- एक गांव हंसखाली में और दूसरा सुंदरवन में। 2009 में उन्हें गॉडफ्रे फिलिप्स ब्रेवरी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इस साल केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा। सुभाषिनी कहती हैं, मुझे असली अवॉर्ड उसी दिन मिल गया, जिस दिन मेरा अस्पताल बनकर तैयार हुआ। मैं चाहती हूं कि डॉक्टर पैसे कमाने के साथ गरीबों का भी ख्याल रखें। उनका मुफ्त इलाज करें।
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी