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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैये गायें बेसहारा नहीं, मेरी संतान हैं

ये गायें बेसहारा नहीं, मेरी संतान हैं

जर्मनी जैसे विकसित देश में पैदा हुई फ्रेडरिक एरिना ब्रूनिंग की शिक्षा-दीक्षा बर्लिन में हुई। एक समय उनके पिता भारत स्थित जर्मन दूतावास में कार्यरत थे। किशोरावस्था से ही दर्शन और अध्यात्म के प्रति...

ये गायें बेसहारा नहीं, मेरी संतान हैं
फ्रेडरिक एरिना ब्रूनिंग, जर्मन समाज सेविकाSat, 25 May 2019 10:00 PM
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जर्मनी जैसे विकसित देश में पैदा हुई फ्रेडरिक एरिना ब्रूनिंग की शिक्षा-दीक्षा बर्लिन में हुई। एक समय उनके पिता भारत स्थित जर्मन दूतावास में कार्यरत थे। किशोरावस्था से ही दर्शन और अध्यात्म के प्रति आकर्षित ब्रूनिंग में भारत को लेकर एक खास उत्सुकता थी। वह एक सवाल से टकराती रहतीं कि मानव-जीवन का उद्देश्य क्या है? पढ़ाई पूरी करने के बाद 1978 में उन्होंने भारत घूमने का फैसला किया। ब्रूनिंग कहती हैं, ‘मैं भारत एक सैलानी के रूप में आई थी। यहां आकर मुझे एहसास हुआ कि जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए मुझे किसी गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए। मैं अपने आध्यात्मिक गुरु की तलाश करती हुई राधा कुंड पहुंची थी।’

ब्रूनिंग अपनी तमाम जिज्ञासाओं के साथ तीनकड़ीजी महाराज के पास पहुंचीं और वहीं अपने जीवन के उद्देश्य से उनकी मुलाकात हुई। आश्रम के पास रहने वाले किसी व्यक्ति के अनुरोध पर ब्रूनिंग ने एक गाय खरीदी और फिर तो उनकी जिंदगी ही बदल गई। उन्होंने गाय से जुड़ी जानकारियां जुटाने के लिए किताबें खरीदीं, उन्हें पढ़ा और स्थानीय लोगों की मदद हासिल करने के लिए बाकायदे हिंदी भाषा सीखी।

भारत में मवेशियों की उपयोगिता खत्म हो जाने के बाद आम तौर पर गृहस्थ उन्हें खुला छोड़ देते हैं और फिर मवेशी दुर्दशा के शिकार होते रहते हैं। मथुरा के हालात भी शेष भारत से अलग न थे। ब्रूनिंग बताती हैं, ‘मैंने देखा कि जब गायें दूध देना बंद कर देती थीं, तो बहुत सारे गोपालक उन्हें आवारा भटकने के लिए छोड़ देते थे। वे भूख, बीमारी और जख्मी अवस्था में इधर-उधर दुत्कारी जाती थीं। उन्हें देखभाल की जरूरत थी।’ लावारिस गायों की इस दुर्दशा ने ब्रूनिंग को द्रवित कर दिया। उन्होंने बेसहारा गायों की देखभाल के लिए गोशाला शुरू करने का फैसला किया। शुरुआत में एक छोटे-से आंगन में सद्कार्य की शुरुआत की। जाहिर है, बेसहारा गायों की संख्या ज्यादा थी और संसाधन सीमित।

सन् 1996 में उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति के किराये से राधा कुंड में ‘राधा सुरभि गोशाला’ की शुरुआत की। ब्रूनिंग कहती हैं, ‘वे मेरे बच्चों की तरह थीं, उन्हें मैं यूं दर-बदर नहीं छोड़ सकती।’ यहीं नहीं, उन्होंने स्थानीय गोपालकों तक यह संदेश पहुंचाया कि अगर वे किसी गाय की देखभाल में असमर्थ हैं, तो फिर उसे गोशाला में पहुंचा दें। लगभग 3,300 वर्ग गज में बनी इस गोशाला में जब गायें पहुंच जाती हैं, तो फिर उनको चारा और इलाज मुहैया कराया जाता है। एरिना बताती हैं, ‘मेरे पास अभी 1,800 के करीब गायें और बछड़े हैं। मैं और ज्यादा गायों को रखने की स्थिति में नहीं हूं, क्योंकि जगह की सीमा है। इसलिए सिर्फ बूढ़ी, बीमार और अपंग गायों को ही अपनी गोशाला में लेती हूं, बाकी को अन्य गोशालाओं में भिजवा देती हूं।’

उनकी इस कोशिश का एक सुखद पहलू यह है कि गोशाला की देखभाल और उपचार के बाद बहुत सारे गोपालकों ने अपनी गायों को फिर से अपना लिया। ब्रूनिंग ने गोशाले को अलग-अलग हिस्सों में बांट रखा है। अंंधी या जख्मी गायों को अधिक देखभाल की जरूरत होती है, इसलिए उनको अलग रखा जाता है। जाहिर-सी बात है, इतनी बड़़ी संख्या में बीमार, परित्यक्त गायों और उनके बछड़ों की देखभाल पर हर माह भारी-भरकम रकम खर्च होती है। इनकी तीमारदारी के लिए 90 लोगों का स्टाफ है, जिनकी तनख्वाह भी देनी पड़ती है। चारा, दवाई और सेवादारों की तनख्वाह पर लगभग 35 लाख रुपये हर माह खर्च होते हैं। ब्रूनिंग के पास बर्लिन में उनकी कुछ पैतृक संपत्ति है, जिससे किराये के रूप में कुछ रकम मिल जाती है, बाकी वह दान और चंदे आदि से जुटाती हैं। वह कहती हैं, ‘शुरू-शुरू में पिता कुछ रकम भेज दिया करते थे, लेकिन जब वह वरिष्ठ नागरिक हो गए, तो उनसे मदद लेना मुनासिब नहीं लगा।’

ब्रूनिंग की नि:स्वार्थ गोसेवा के कारण स्थानीय लोग उन्हें ‘सुदेवी माता’ कहकर संबोधित करते हैं। स्थानीय लोगों ने कई बार उनसे अनुरोध किया कि आप भारत की स्थाई नागरिकता ले लीजिए, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि फिर वह जर्मनी की जायदाद से मिलने वाले किराये से हाथ धो बैठतीं, जबकि इस रकम से उनकी गोशाला की माली मदद हो जाती है। कई बार आर्थिक दबाव आने पर कुछ लोगों ने उनसे यह तक कहा कि वह इसे बंद करके क्यों नहीं बर्लिन लौट जातीं? लेकिन गायों की सेवा को लक्ष्य बना चुकीं ब्रूनिंग का कहना है, ‘मैं इसे बंद नहीं कर सकती। इसमें 90 लोग सेवादार हैं, उन सबको अपने बच्चे और परिवार पालने के लिए पैसों की जरूरत है। और फिर मेरी गायों की देखभाल कौन करेगा? ये मेरी संतानें हैं, मैं ही इनकी देखभाल करूंगी।’

इस अनूठी मानवीय सेवा के लिए भारत सरकार ने इस साल गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने चौथे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से इन्हें सम्मानित किया। राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में जब फ्रेडरिक एरिना ब्रूनिंग का नाम पदक ग्रहण के लिए पुकारा गया, तब पूरा कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इस जर्मन साधिका पर हिन्दुस्तान को नाज है। 
(प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह)

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