मत करो मुझसे इतनी नफरत
ओजलेम का जन्म तुर्की में हुआ। मां कक्षा तीन तक पढ़ी थीं। पापा कभी स्कूल नहीं गए। हालांकि बाद में उन्होंने पढ़ना-लिखना सीख लिया। यह 70 के दशक की बात है। रोजगार की तलाश में उनका परिवार जर्मनी आ गया। कुछ...
ओजलेम का जन्म तुर्की में हुआ। मां कक्षा तीन तक पढ़ी थीं। पापा कभी स्कूल नहीं गए। हालांकि बाद में उन्होंने पढ़ना-लिखना सीख लिया। यह 70 के दशक की बात है। रोजगार की तलाश में उनका परिवार जर्मनी आ गया। कुछ दिन वहां बीते। बाद में पापा को पता चला कि फिनलैंड में कामगारों की जरूरत है, इसलिए परिवार समेत फिनलैंड चले गए। वहां उन्हें तुर्की दूतावास में घरेलू सहायक की नौकरी मिली। मां आसपास के घरों में झाड़ू-पोंछा करने लगीं। उनका परिवार दूतावास के ठीक पीछे एक कच्चे घर में रहने लगा। आसपास के लोगों से उनका कोई संपर्क नहीं था। न कोई पड़ोसी था, न रिश्तेदार। मां को बहुत अकेलापन लगता था। ओजलेम कहती हैं, मां को लगता, मानो उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया हो। हमारा परिवार एक अजीब माहौल में जी रहा था। इस बीच पापा को खबर लगी कि उनके गांव के कुछ लोग डेनमार्क में रहने चले गए हैं। वहां रोजगार और शिक्षा के बेहतर मौके हैं। वह हमेशा से चाहते थे कि बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। बेहतर जिंदगी की तलाश में वह डेनमार्क आ गए। उनका परिवार कोपेनहेगन शहर के वेस्टर्बो इलाके में रहने लगा। ओजलेम तब बहुत छोटी थीं। उन्हें नहीं पता था कि मम्मी-पापा अपना मुल्क छोड़कर दूसरे देश में क्यों आ गए? घर के अंदर तो सब कुछ सामान्य था, पर जब स्कूल जाना शुरू किया, तो उन्हें बार-बार यह एहसास कराया गया कि वह इस मुल्क की नहीं हैं।
वह जिस स्कूल में पढ़ती थीं, वहां कई और प्रवासी बच्चे थे। पर टीचर डेनमार्क मूल की थीं। जाहिर है, डेनमार्क के बच्चे तो प्रवासी बच्चों को बाहरी समझते ही थे, टीचर का रवैया भी अच्छा नहीं था। टीचर की बातें सुनकर उन्हें बहुत दुख होता था। मन में हर समय असुरक्षा का भाव रहने लगा। समझ में नहीं आता था कि उन्हें बाहरी मुल्क का क्यों कहा जा रहा है? नन्हे दिमाग में अनगिनत सवाल उठने लगे। अगर यह मुल्क हमारा नहीं है, तो हमारा मुल्क कौन सा है? हम यहां क्यों आए? ओजलेम बताती हैं, टीचर कहती थीं कि तुम प्रवासी बच्चे चाहे जितनी मेहनत कर लो, तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है। यह सुनकर मैं परेशान हो जाती थी।
तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने नर्सिंग में डिग्री हासिल की। कॉलेज के दिनों में सामाजिक मुद्दों को लेकर वह मुखर रहीं। नस्ली भेदभाव पर उन्होंने प्रवासियों को जागरूक किया। सामाजिक आंदोलन के दौरान सोशलिस्ट पीपुल्स पार्टी से जुड़ीं और 2004 में पार्टी की सेंट्रल कमेटी में चुनी गईं। यहीं से उनका सियासी सफर शुरू हुआ।
पार्टी ने उन्हें प्रवक्ता पद की जिम्मेदारी दी। 2007 में वह डेनमार्क की पहली मुस्लिम महिला सांसद बनीं। जैसे ही उनके सांसद बनने की खबर देश में फैली, लोग नफरत भरे संदेश भेजने लगे। देश छोड़ने की धमकी दी गई। ओजलेम बताती हैं, कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगा कि एक मुस्लिम अप्रवासी महिला सांसद बन गई। मुझे धमकियां मिलने लगीं। सोशल मीडिया पर मेरा मजाक उड़ाया गया, भद्दे कमेंट किए गए। वह पांच साल सांसद रहीं। पूरा कार्यकाल धमकियां और अपमान सहते बीता। ओजलेम कहती हैं, अपमान भरे संदेशों को पढ़कर मैं रो पड़ती थी। मन में इतना डर बैठ गया कि कई मेल मैं बिना पढ़े डिलीट कर देती थी।
बात ऑनलाइन ट्रोलिंग तक सीमित नहीं रही। लोग सड़क चलते धमकी देने लगे। फोन पर भी धमकाया गया। उनसे कहा गया कि वह डेनमार्क छोड़कर वापस तुर्की चली जाएं। 2009 में उन्होंने अपनी आत्मकथा में इन तकलीफों को बयां किया। फिर एक दिन उन्होंने खुद से सवाल किया, आखिर लोग मुझसे क्यों नफरत करते हैं? ओजलेम कहती हैं, मैं जानना चाहती थी कि आखिर वे मुझसे क्यों नफरत करते हैं? मैंने कौन-सा गलत काम किया है? इसलिए मैंने ‘कॉफी विद हेटर्स’ अभियान शुरू किया। इसके तहत वह सैकड़ों लोगों से मिलीं। उनके साथ बैठकर कॉफी पी और ढेर सारी बातें कीं। उनकी यह कोशिश रंग लाई। तमाम लोगों की नफरत प्यार में बदल गई। कई लोगों ने कहा, आप तो बिल्कुल हमारी जैसी हैं।
हालांकि कुछ मुलाकातों में अनुभव बहुत खराब रहा। किसी ने कहा कि वापस तुर्की चली जाओ, तो किसी ने कहा कि हमारे देश में गंदगी मत मचाओ। ओजलेम बताती हैं, एक बार मैं एक ऐसे शख्स से मिली, जिसने कहा कि हम प्रवासियों को जबर्दस्ती डेनमार्क से नहीं निकाल सकते, पर हम उनसे कहेंगे कि वे यहां बच्चे पैदा न करें। मैंने पूछा, मैं परिवार के बिना कैसे जिऊंगी? उसने कहा कि तुम्हें किसी श्वेत से रिश्ता बनाना होगा, ताकि तुम्हारे बच्चे श्वेत हों। हम अपने मुल्क में अश्वेत बच्चे नहीं चाहते।
इन दिनों डेनमार्क में ‘कॉफी विद हेटर्स’ काफी चर्चा में है। ओजलेम कहती हैं, मैं लोगों से कहती हूं कि मैं भी किसी की मां हूं। मेरा परिवार है। मेरा जन्म जरूर तुर्की में हुआ है, पर मरूंगी डेनमार्क में। यह मेरा मुल्क है। मैं इससे प्यार करती हूं। मुझे उम्मीद है, लोगों का नजरिया बदलेगा। नफरत खत्म होगी और प्यार जीतेगा।
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी