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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैउन्हें तिल-तिल मरते कैसे छोड़ देती

उन्हें तिल-तिल मरते कैसे छोड़ देती

वह अपने चाहने वालों की दीज्जू (बड़ी बहन) हैं। उम्र के 70 पड़ाव पार कर चुकीं अनुराधा कोइराला का जन्म 14 अप्रैल, 1949 को नेपाल के रुम्जाटार कस्बे में हुआ था। पिता प्रताप सिंह गुरुंग चूंकि कर्नल थे, इसलिए...

उन्हें तिल-तिल मरते कैसे छोड़ देती
अनुराधा कोइराला, राजनेता व सामाजिक कार्यकर्ताSun, 03 Nov 2019 12:03 AM
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वह अपने चाहने वालों की दीज्जू (बड़ी बहन) हैं। उम्र के 70 पड़ाव पार कर चुकीं अनुराधा कोइराला का जन्म 14 अप्रैल, 1949 को नेपाल के रुम्जाटार कस्बे में हुआ था। पिता प्रताप सिंह गुरुंग चूंकि कर्नल थे, इसलिए अनुराधा का बचपन अभावों से दूर ही रहा। पिता का सपना था कि बेटी को बेहतर तालीम मिले। इसके लिए उन्होंने भारत का रुख किया और पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग स्थित सेंट जोसेफ कॉन्वेंट स्कूल में अनुराधा का दाखिला करा दिया।


स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही अनुराधा के मन पर मदर टेरेसा के जीवन और काम की गहरी छाप पड़ी और कहीं न कहीं उन्हीं दिनों उनके मन में एक सामाजिक कार्यकर्ता बनने का बीज भी पड़ गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद अनुराधा नेपाल लौट आईं और काठमांडू के करीब एक कॉन्वेंट में बच्चों को पढ़ाने लगीं। अगले 20 वर्षों तक उन्होंने आस-पास के स्कूलों में पढ़ाने का काम किया। इस काम से उन्हें संतोष तो मिलता था, मगर भीतर कुछ अटका था, जो रह-रहकर किसी बड़ी भूमिका के लिए उन्हें बेचैन कर देता।


इस बीच उनकी शादी भी हो गई थी, मगर उनका दांपत्य जीवन सुखमय नहीं रहा। अपनी पूरी जवानी उन्होंने शिक्षिका की नौकरी की, मगर घर की चारदीवारी में उनके आत्मसम्मान को लगातार रौंदा जाता रहा। इसके बावजूद अनुराधा ने इस अपमानजनक रिश्ते को ढोने की अपने तईं काफी कोशिश की, पर कब तक वह बर्दाश्त कर पातीं? वह एक पढ़ी-लिखी, नौकरीशुदा खुदमुख्तार औरत थीं। 


जब इस रिश्ते ने ज्यादा हिंंसक मोड़ लिया, तो फिर उनकी जिंदगी के मकसद और दायित्व भी बदल गए। सीएनएन  को दिए एक इंटरव्यू में अनुराधा कहती हैं, ‘लगभग रोज मेरे ऊपर हाथ उठाया जाता था। मेरे तीन-तीन गर्भपात हुए और मुझे लगता है कि इसकी वजह पिटाई ही थी। वे बेहद तकलीफ भरे दिन थे, क्योंकि मुझे कुछ नहीं पता था कि कहां जाऊं, किसे इसकी रिपोर्ट करूं, किसको बताऊं?’ बहरहाल, जब इस रिश्ते से छुटकारा मिला, तो अपनी तनख्वाह के एक हिस्से से वह घरेलू हिंसा की शिकार औरतों और यौन-तस्करी के कारण विस्थापित बच्चियों की मदद करने लगीं। 


1990 के दशक की शुरुआत में जब ऐसी मदद की मांग बढ़ने लगी, तो उन्होंने शिक्षिका की नौकरी छोड़ दी और 1993 में ‘माइती नेपाल’ नाम के एक गैर-लाभकारी संगठन की नींव रखी। माइती यानी मां का घर। इस शुरुआत के पीछे उनका मुख्य मकसद था घरेलू हिंसा से पीड़ित औरतों को कानूनी संरक्षण मुहैया कराना, और यौन-तस्करी से आजाद कराई गई लड़कियों का समुचित पुनर्वास।


माइती नेपाल की शुरुआत के बाद अनुराधा के सामने अब सबसे बड़ा सवाल यह था कि वेश्यालयों या यौन तस्करों से आजाद कराई गई जिन औरतों के पास लौटने का कोई ठिकाना न हुआ, उन्हें वह कहां रखेंगी? इसलिए उन्होंने सबसे पहले एक घर बनाने का काम किया। फिर तो पूरी दिलेरी के साथ यौन तस्करी के खिलाफ वह व्यापक मुहिम में जुट गईं। ऐसी ही एक कोशिश में आजाद हुई गीता (बदला हुआ नाम) की दर्दनाक कहानी ने उन्हें हिला दिया। 


एक खेतिहर नेपाली की बेटी गीता महज नौ साल की थी, जब उसके रिश्ते के भाई ने धोखे से भारत लाकर एक वेश्यालय को बेच दिया था। गीता की मां आंखों से माजूर थीं और उन्हें यह यकीन दिलाया गया था कि गीता को नेपाल की ही एक कपड़ा कंपनी में काम मिल रहा है। अंधी मां और छल-कपट की दुनिया से अबोध गीता को क्या पता था कि वह नरक के दरिया में उतारी जा रही है। हर रात दो बजे तक उसे कई-कई दर्जन पुरुषों की हवस का शिकार बनना पड़ता। गीता जब कभी भी आना-कानी करती, तो तार, लोहे की छड़ से उसे पीटा जाता; गरम चम्मच से दागा जाता था। लगभग पांच वर्षों तक वह यह सब कुछ भोगती रही थी। 


ऐसी बच्चियों की पीड़ा से आहत अनुराधा पूरी प्रतिबद्धता के साथ देश की बेबस औरतों और बच्चियों के उद्धार में जुट गईं। पिछले दो दशकों में उन्होंने न सिर्फ 12,000 महिलाओं को वेश्यालयों से आजाद कराया, बल्कि 45,000 से ज्यादा को इस दलदल में फंसने से भी बचाया। अनुराधा की इस कर्मठता ने पूरी दुनिया में उन्हें शोहरत और इज्जत दिलाई है। साल 2010 में अमेरिकी सरकार ने माइती नेपाल को पांच करोड़, 21 लाख नेपाली रुपये का अनुदान दिया और उसी साल वह सीएनएन  के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हीरो ऑफ द ईयर’ से नवाजी गईं।


माइती नेपाल के नेतृत्व में आज ऐसे 14 संरक्षण-गृह संचालित हो रहे हैं, जहां मानव तस्करी से बचाई गई महिलाओं को रहने, अपने पैरों पर खडे़ होने का कौशल-प्रशिक्षण दिया जाता है। संगठन के पास दो अस्पताल हैं। एक स्कूल भी है, जिसमें करीब 1,000 बच्चों को शिक्षा मिल रही है। अनुराधा के इस अप्रतिम योगदान को देखते हुए 2017 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा, तो उनके अपने देश ने पिछले साल ही उन्हें प्रांत संख्या-एक का पहला गवर्नर नियुक्त किया है।

प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह

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